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से ज्ञान दर्शन का आवरण घटता-बढ़ता है। जितना मोहनीयकर्म घटता है उतना ही ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय कर्म घटता है। अर्थात् ज्ञान व दर्शन गुण बढ़ता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान - दर्शन के आवरण का क्षयोपशम बढ़ता है। इसके विपरीत मोहनीय कर्म के बढ़ने से दर्शन एवं ज्ञान-गुण का आवरण बढ़ता है। अभिप्राय यह है कि ज्ञान और दर्शन - गुण का घटना - बढ़ना मोहनीयकर्म के घटने-बढ़ने पर निर्भर करता है, ज्ञानोपयोग-दर्शनापयोग पर नहीं । जैसे आँख खोलते ही सामने की हजारों वस्तुएँ दिखाई देती हैं- बगीचे की ओर देखने से हजारों वृक्षपौधे - फल-फूल, पत्ते दिखाई देते हैं और आँख मूँदते ही उनका दिखना बन्द हो जाता है, चश्मा लगाते ही अक्षर दिखने लगते हैं- चश्मा हटाते ही अक्षर का दिखना बन्द हो जाता है। यह वस्तुओं व अक्षरों का दिखना या न दिखना चक्षुदर्शन गुण के उपयोग पर निर्भर करता है। चक्षुदर्शन के गुण का उपयोग किया तो दिखने लगा, उपयोग न करते तो न दिखाई देता । अतः वस्तुओं के दिखने या न दिखने से चक्षुदर्शन गुण घट-बढ़ नहीं जाता है। जब अचक्षु दर्शन का उपयोग होता है, तब चक्षु-दर्शन का उपयोग नहीं होता है, यहाँ चक्षु-दर्शन का उपयोग न होने से चक्षु - दर्शन गुण में कमी नहीं आ जाती है। यही क्यों, जब ज्ञानोपयोग होता है तब किसी दर्शन का उपयोग नहीं होता है, परन्तु दर्शन का उपयोग न होने . से दर्शन - गुण का अभाव नहीं हो जाता है। इसी प्रकार दर्शन का उपयोग करते समय ज्ञानोपयोग नहीं होता है, इससे ज्ञान-गुण का अभाव नहीं हो जाता है। यही नहीं मतिज्ञान के 336 भेदों में से किसी एक भेद के ज्ञान का उपयोग करते समय शेष मतिज्ञान के भेदों का तथा श्रुतज्ञान आदि अन्य ज्ञानों का उपयोग नहीं होता है, इससे उन ज्ञानों का नाश या अभाव नहीं हो जाता है । अतः महत्त्व गुण का है, उपयोग का नहीं। जैसे अनेक वस्तुओं का दर्शन होना, दर्शनोपयोग है। इस दर्शनोपयोग के कम-ज्यादा होने से अर्थात् कम या अधिक संख्या में वस्तुएँ दिखने से दर्शन - -- गुण कम-ज्यादा नहीं होता है। इसी प्रकार अनेक वस्तुओं का जानकारी होना ज्ञानोपयोग का विस्तार है । इस ज्ञानोपयोग के कम ज्यादा होने से अर्थात् अनेक वस्तुओं का ज्ञान होने या न होने से ज्ञान-गुण कम-ज्यादा नहीं होता है । उदाहरणार्थ - स्वाद के ज्ञान को ही लें- रसनेन्द्रिय से स्वाद
ज्ञानावरण कर्म
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