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हैं। 5. जिन व्यक्तियों को भोग्य पदार्थों की जानकारी भी है, परन्तु उन्हें क्रय करना, प्राप्त करना उनके वश की बात नहीं है, असमर्थ है। ऐसी स्थिति में भी उनके मन में उन वस्तुओं को पाने का संकल्प, न मिलने का विकल्प नहीं उठता है। जैसे- एक भिखारी को कार पाने, बंगला बनाने का संकल्प-विकल्प नहीं होता है। इसका कारण यह नहीं है कि वह इन्हें नहीं चाहता है कारण कि आज भी उसकी सामर्थ्य क्रय करने व संभाल सकने की हो, व्यय वहन करने की हो अथवा कोई मुफ्त देनेवाला व व्यय वहन करने वाला मिल जाये, तो वह भी इन वस्तुओं को लेने को तैयार हो जायेगा।
निद्रा आदि उपर्युक्त कारणों से होने वाली निर्विकल्प स्थिति तो प्राणी के जीवन में होती ही रहती है। उससे शान्ति मिलती है। शक्ति का संचय भी होता है, परन्तु उस शांति और निर्विकल्पता का कोई महत्त्व नहीं है, जो निद्रा, जड़ता, मूर्छा, अज्ञानता और असमर्थता के कारण मिलती है। कारण कि ये सब स्थितियाँ जड़ता जनित हैं तथा चेतना के स्वभाव के विपरीत हैं, हानिकारक हैं।
निर्विकल्प स्थिति और निर्विकल्प अनुभूति इन दोनों में बहुत अन्तर है। महत्त्व है निर्विकल्प अनुभूति का, निर्विकल्प स्थिति का नहीं। महत्त्व निर्विकल्पता का नहीं, विकल्पों के त्याग का है, निर्विकल्प बोध का है, त्यागपूर्वक निर्विकल्पता का है, अनुभूति का है। यह सर्वविदित (सबकी अनुभूति) है कि कामना की अपूर्ति ही चित्त को अशान्त बनाती है। कामना उत्पन्न होते ही पूरी नहीं हो जाती, उसकी पूर्ति श्रम एवं प्रयत्न पर निर्भर करती है। अतः प्रत्येक प्राणी को कामना पूर्ति के पूर्व कामना अपूर्ति की स्थिति से गुजरना पड़ता है। वह स्थिति चित्त की अशान्ति व विकल्प की द्योतक है, कामना उत्पत्ति व अपूर्ति चित्त के संकल्प-विकल्प की कारण बनती है।
जहाँ कामना है, वहाँ अशान्ति है। जितनी अधिक कामनाएँ, उतनी ही अधिक अशान्ति। जितनी प्रबल कामनाएँ, उतनी ही प्रबल अशान्ति। कामनाएँ किसी भी कारण से उत्पन्न हों, वे चित्त को अशान्त बनाती हैं। इसीलिए कोई व्यक्ति बहुत अधिक कामनाएँ करता है, तो उसका चित्त घोर अशान्त हो जाता है। चित्त की यह स्थिति नारकीय है। संसार में इन्द्रिय
दर्शनावरण कर्म