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गुण में अन्तर नहीं आता है। उदाहरणार्थ- जिस समय दर्शन का उपयोग होता है, दर्शनोपयोग होता है, उस समय ज्ञानोपयोग नहीं होता। परन्तु ज्ञानोपयोग न होने से उस समय चेतना (आत्मा) में ज्ञान गुण विद्यमान नहीं रहता हो, सो बात नहीं है। यदि ज्ञान गुण न रहे, तो चेतना के अस्तित्व का ही लोप हो जाये। ज्ञानावरण से सम्बद्ध जिज्ञासा और समाधान
जिज्ञासा- वर्तमान में ज्ञानावरणीय कर्मबंध का कारण ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधन ग्रन्थ आदि का अनादर माना जाता है एवं विषय-विकारों की उत्पत्ति, पूर्ति व वृद्धि करने से सम्बद्ध लौकिक विषय वाणिज्य, कला, विज्ञान आदि के ज्ञान को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से माना जाता है। यह कहाँ तक उचित है?
समाधान- प्रथम तो मूल पाठ में 'ज्ञानी' शब्द कहीं नहीं आया है। अतः ज्ञानी के अनादर या आदर से संबंधित आधे प्रश्न तो ऐसे ही अपने आप समाप्त हो जाते हैं। कारण कि ज्ञानी के या प्राणी के अनादर से मोहनीय कर्म के बंध का सम्बन्ध है, ज्ञानावरणीय कर्म का नहीं, क्योंकि किसी प्राणी को मारने से हिंसा होती है, कषाय का उदय होता है। ऐसा लगता है कि ज्ञान के अनादर की व्याख्या करते हुए व्याख्याकारों के समक्ष यह कठिनाई आई कि ज्ञान गुण का अनादर कैसे हो सकता है? तो उन्होंने उस गुण के धारक व्यक्ति से, ज्ञान के उपकरणों से उसका सम्बन्ध जोड़ दिया, क्योंकि अनादर व्यक्ति, उपकरणों व साधनों का ही हो सकता है। अनादर शब्द का अर्थ उन्होंने अपमान, उपेक्षा, अवमानना लिया, जैसे- ज्ञानी के ठोकर लगाना, उसे अपशब्द कहना, शास्त्र-आगम के ठोकर लगाना आदि और आदर का अर्थ सम्मान करना किया, जैसेज्ञानी, आगम-शास्त्र आदि का सम्मान करना।
परन्तु ऐसा लगता है कि आगमों में 'ज्ञान' शब्द से अभिप्राय स्वभाव के ज्ञान से अर्थात् स्वाभाविक ज्ञान से है, अर्जित ज्ञान से नहीं। जैसे धन का संग्रह, वस्तुओं का संग्रह, शरीर का बल, बाह्य वस्तुए हैं वैसे ही संग्रह की गई जानकारी मस्तिष्क की वस्तु है, जीव का स्वाभाविक ज्ञान गुण नहीं है। यह नियम है कि वस्तु का स्वभाव किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में नहीं बदलता है, नष्ट नहीं होता है। उसके प्रकटीकरण में न्यूनाधिकता
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ज्ञानावरण कर्म