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अर्थशास्त्र आदि विषयों का ज्ञान है, परन्तु इस समय वह गणित पढ़ा रहा है अर्थात् गणित विषय का उपयोग कर रहा है और भूगोल, अर्थशास्त्र आदि अन्य विषयों का उपयोग नहीं कर रहा है, इससे उसका भूगोलअर्थशास्त्र आदि विषयों का ज्ञान न तो नष्ट हो गया है और न इस ज्ञान में हानि-वृद्धि ही हो रही है। यही तथ्य ज्ञान-दर्शन गुण तथा उनके उपयोग पर भी लागू होता है। उपयोग की न्यूनाधिकता पर गुण की हानि-वृद्धि निर्भर नहीं है। जैसे- किसी व्यक्ति ने नयन खोले और उद्यान की ओर देखा, तो उसे उद्यान में हजारों प्रकार के फूल-पौधे आदि दिखाई दिये, फिर उसने आसमान की ओर देखा, तो एक पक्षी उड़ता दिखाई दिया, तदनन्तर उसने नयन बंद कर दिये, तो दिखना बंद हो गया अथवा किसी ने ऐनक लगा लिया तो दिखने लगा, ऐनक हटा दिया तो दिखना कम हो गया। इस प्रकार हजारों वस्तुएँ दिखने से दर्शनावरणीय गुण का क्षयोपशम अधिक हो, एक वस्तु के दिखने से तथा कुछ भी नहीं दिखने से अथवा दृष्टि में न्यूनाधिकता होने से दर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम न्यूनाधिक हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है। कारण कि दर्शनावरणीय-कर्म का क्षयोपशम मोह की न्यूनाधिकता पर निर्भर करता है। मोह में कमी होने से दर्शन-गुण का आवरण घटता है, मोह की वृद्धि से दर्शन-गण पर आवरण बढ़ता है। यही तथ्य ज्ञान-गुण पर भी घटित होता है। ज्ञान-गुण के आवरण की हानि-वृद्धि मोह की प्रबलता तथा प्रगाढ़ता की कमी और वृद्धि पर निर्भर करती है।
अथवा गुण एवं उनके उपयोग में अन्तर
कहीं पर दीपक, कॉपी, कलम आदि वस्तुएँ विद्यमान हैं, परन्तु किसी बरतन से ढकी हुई हैं। आवरण आया हुआ है, अतः प्रकट नहीं हो रही हैं और उनका उपयोग नहीं हो रहा है। परन्तु आवरण हटा दिया जाय तो आवरण हटने पर दीपक, कलम, कापी आदि वस्तुएँ प्रकट हो जाती हैं | वस्तुएँ प्रकट होने पर भी उनका उपयोग नहीं किया जाय, तब भी वस्तुओं का वस्तुपना व अस्तित्व ज्यों का त्यों बना रहता है, अभाव नहीं हो जाता। सूर्य में प्रकाश सदैव विद्यमान रहता है, उसका अभाव कभी नहीं होता है। परन्तु बादल का आवरण आ जाय तो प्रकट नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा
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ज्ञानावरण कर्म