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जीव को छोड़कर शेष अन्य किसी द्रव्य को न तो संवदेन ही होता है और न जानकारी ही । अतः संवेदन और ज्ञान ये दोनों ही जीव के असाधारण गुण या लक्षण हैं ।
ऊपर कह आए हैं कि स्व- - संवदेन को दर्शन कहते हैं। संवदेनशीलता–अन्तर्मुख चैतन्य, चिन्मयता, निर्विकल्पता, अनाकारता, अभेदता, निर्विशेषता, सामान्य ये दर्शन गुण के द्योतक हैं । दर्शन अनिर्वचनीय होता है, अनुभवगम्य होता है । अतः इसे अंगुलि निर्देश रूप संकेत से ही समझाया जा सकता है, किसी शब्द से नहीं समझाया जा सकता है- सव्वे सरा नियट्टंति (आचारांग सूत्र )
'दर्शन' चेतना का मूल गुण है। इस गुण के विकास पर ही ज्ञान गुण का व चेतना का विकास निर्भर करता है। दर्शनगुण का विलोम जड़ता है। संवदेनशीलता पर आवरण आना अर्थात् जड़ता आना ही दर्शनावरणीय है। दर्शनावरणीय कर्म के प्रकार
(1) चक्षुदर्शनावरणीय - चक्षु की आन्तरिक ग्रहण शक्ति (संवेदनशीलता) चक्षु दर्शन है। इस गुण पर आवरण आना चक्षुदर्शनावरण है। (2) अचक्षुदर्शनावरणीय - शरीर, जिहवा, नासिका एवं श्रोत्र इन्द्रियों की स्पर्शन, स्वाद, गंध, ध्वनि आदि की आन्तरिक ग्रहण- - शक्ति (संवदेनशीलता) अचक्षुदर्शन है। इस गुण पर आवरण आना अचक्षुदर्शनावरण है।
(3) अवधिदर्शनावरणीय - बिना इन्द्रिय व मन की सहायता से पौद्गलिक रूपी पदार्थों से होने वाली संवेदनाओं का सीमित अनुभव (बोध) होना अवधिदर्शन है। इस गुण पर आवरण आना अवधिदर्शनावरण है । (4) केवलदर्शनावरणीय - पूर्ण चिन्मयता का, निजस्वरूप का, द्रव्यगुण-पर्याय का असीम अनुभव होना केवलदर्शन है। इस गुण पर आवरण होना केवलदर्शनावरण है।
निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, ये पाँच प्रकार की निद्राएँ दर्शनावरणीय कर्म के उदय से ही आती हैं। (5) निद्रा - भय, खेद और परिश्रम जन्य थकावट के कारण निद्रा आना। जिसमें सुखपूर्वक सुगमता से जागृत हो सके, वह निद्रा है। (6) निद्रा-निद्रा- निद्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि होना, निद्रा का प्रगाढ़ होना, कठिनाई से जागृत होना, निद्रा - निद्रा है ।
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दर्शनावरण कर्म