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का सेवन) करने से मोहनीय कर्म के नवीन बंध में वृद्धि होती है, जिससे दर्शनावरणीय-ज्ञानावरणीय कर्म के अनुभाव एवं स्थिति बंध में वृद्धि होती है। क्षयोपशम में कमी होती है।
मोहनीय कर्म की कमी से, ज्ञान गुण का आदर होने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होकर ज्ञान गुण का विकास होता है। यही ज्ञानावरणीय कर्म का विकास मिथ्यात्व के कारण विपरीत–विपर्यास अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इसे ही अज्ञान कहा जाता है। अज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। अज्ञान ज्ञान का ही विपरीत रूप है। अतः मिथ्यात्वी का जितना ज्ञान बढ़ता है, उसका यह ज्ञान ही अज्ञान का रूप धारण करता है। इसीलिए मिथ्यात्वी के ज्ञानावरण के क्षयोपशम को ही अज्ञान का क्षयोपशम कहा जाता है। इस अज्ञान में से मिथ्यात्व को निकाल दें तो वही अज्ञान ज्ञान कहलाता है। जो पहले मति अज्ञान था, वही अब मतिज्ञान हो जाता है और इस ज्ञान में कुछ भी घट-बढ़ नहीं होती है अर्थात मिथ्यात्व के हटने से वह मतिअज्ञान व मतिज्ञान घटता-बढ़ता नहीं है। अज्ञान का उपयोग घटने-बढ़ने से अज्ञान व ज्ञान का क्षयोपशम घटता-बढ़ता नहीं है। दर्शनोपयोग के समय अज्ञान का उपयोग बिल्कुल नहीं होता। उपयोग न होने से अज्ञान घट- बढ़ एवं मिट नहीं जाता है। ज्ञान गुण जो जीव का स्वभाव है उसी का विपरीत रूप 'अज्ञान' है। ज्ञान गुण प्रकट न हो, तो अज्ञान संभव ही नहीं है। मिथ्यात्व युक्त ज्ञान ही अज्ञान है।
वस्तुओं का आकार-प्रकार, रंग-रूप दिखाई देना, चक्षु दर्शन का उपयोग नहीं है। यह चक्षु मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमजन्य ज्ञान के उपयोग का परिणाम है। चक्षु दर्शन व चक्षु मतिज्ञान या अज्ञान, ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग तथा ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म का उदय कर्म बंध के कारण नहीं हैं। इनका उपयोग चारित्र मोहनीय कर्म में करना दुरुपयोग है। यह दुरुपयोग पाप कर्मों की स्थिति व अनुभाग के बंध का कारण है तथा इनका सर्वहितकारी प्रवृत्ति में किया गया सदुपयोग पुण्य कर्म के अनुभाग वृद्धि का कारण है। इनका दुरुपयोग चारित्र मोहनीय है और सदुपयोग चारित्र मोहनीय में कमी होना है। कर्म की स्थिति व अनुभाग बंध का कारण एक मात्र कषाय चारित्र मोहनीय है, ज्ञान-दर्शन नहीं है। ज्ञान के सदुपयोग से, आदर से चारित्र मोहनीय में कमी अवश्य
ज्ञानावरण कर्म