________________
ज्ञान निगोद के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शरीरधारी जीव को भी किसी न किसी अंश में होता है। इस अक्षर ज्ञान के कारण निगोद का जीव भी अपना विनाश नहीं चाहता है, अमरत्व चाहता है। जीने की भावना, जीवत्व का भाव स्वाभाविक होने से वह पारिणामिक भाव है, जो जीव मात्र में है। इसीलिये जैनागम में निगोद के जीवों में अक्षर का अनन्तवाँ भाग ज्ञान कहा है। वर्तमान में अक्षर का अर्थ लिपि में आये वर्णमाला के अक्षर, क, ख, ग आदि से लिया जाता है, परन्तु यह अर्थ उपयुक्त नहीं लगता है, क्योंकि इस अक्षर के टुकड़े होने पर यह अर्थहीन, व्यर्थ हो जाता है। जैसा कि हम टेपरिकोर्डर में देखते हैं। जो निगोद का जीव अक्षर सुनता ही नहीं है, तो उसमें अक्षर ज्ञान कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। इससे स्पष्ट है कि आगम में अक्षर शब्द का प्रयोग हुआ है, वह अमरत्व, ध्रुवत्व अर्थ के रूप में ही हुआ है।
संसार में किसी भी जीव को मृत्यु पसंद नहीं है। सभी जीवों को अमरत्व, ध्रुवत्व, अविनाशित्व इष्ट है। अमरत्व-ध्रुवत्व की प्रियता का ज्ञान प्राणिमात्र को है। यह ज्ञान प्राणिमात्र को सदैव ज्यों का त्यों विद्यमान रहता है, न्यूनाधिक व नष्ट नहीं होता है, अर्थात् इसका क्षरण नहीं होता है। इसे शास्त्रीय भाषा में अक्षर ज्ञान कहा है। यह अक्षर ज्ञान श्रुतज्ञान है, मतिज्ञान नहीं है, क्योंकि यह इन्द्रिय व मन से नहीं होता है, जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है- श्रुतमनिन्द्रियस्य।-तत्त्वार्थसूत्र 1.22
श्रुतज्ञान अनिन्द्रिय का विषय है। अर्थात् श्रुतज्ञान इन्द्रियों के विषय से रहित है। कतिपय विद्वान् अनिन्द्रिय' का अर्थ मन लगाते हैं, परन्तु यह उचित नहीं लगता है, कारण कि एकेन्द्रिय आदि 'मन रहित' सभी असन्नी प्राणियों के श्रुतज्ञान या कुश्रुतज्ञान नियम से होता है। यदि सूत्रकार को श्रुत का विषय मन इष्ट होता, तो 'श्रुतं मनसः सूत्र ही रच देते। विधिपरक 'मनसः' शब्द के स्थान पर निषेधात्मक अनिन्द्रियस्य शब्द लगाया ही इसलिए गया है कि इन्द्रिय, मन आदि मतिज्ञान के विषय को श्रुतज्ञान न समझा जा सके। यह अक्षर श्रुतज्ञान जीव मात्र में सदैव विद्यमान है। केवल उस पर आवरण आ गया है। आवरण विद्यमान वस्तु पर ही होता है, अविद्यमान वस्तु पर आवरण नहीं आ सकता। आशय यह है कि अक्षर श्रुतज्ञान का अर्थ क, ख, ग आदि अक्षरों से संबंधित नहीं होकर क्षरण रहित अमरत्व, ध्रुवत्व व अविनाशित्व के ज्ञान से संबंधित है।
ज्ञानावरण कर्म