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महावीर ने अपने शिष्य को कहा कि रेवती ने भोजन बनाया है, उसमें से अमुक मत लाना, अमुक लाना। अथवा हे मेघ! तुझे रात को यह विचार आया कि मैं प्रातः घर जाऊँगा आदि.... । इस प्रकार भगवान महावीर ने जितने भी प्रश्नों के उत्तर दिये वे बिना विचारे जड़ यंत्रवत् नहीं दिये। उनके मुख से अपने आप बलात् यंत्रवत् नहीं निकले । यह सारा ऊहा-पोह, विचार-विनिमय, पूछताछ चेतना की निष्क्रिय (अयोग) अवस्था में नहीं हुआ। विचार-विहीन अवस्था में नहीं हुआ। तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली अयोग अवस्था में एक क्षण मात्र भी नहीं रहते और चेतना से संबंधित हुए बिना मन, वचन, काया के स्पंदन रूप योग प्रवृत्ति संभव नहीं है।
केवली के मन, वचन, तन ये तीनों करण हैं और करण अपने आप में न भले होते हैं और न बुरे होते हैं। कर्त्ता का भाव ही प्रतिबिम्ब के रूप में करण में भले-बुरे रूप में प्रकट होता है। केवली में ये तीनों करण या योग माने गये हैं। आगम में द्रव्य-वचन और भाव-वचन या द्रव्य-तन या भाव-तन जैसा भेद नहीं है। वैसे ही द्रव्य–मन, भाव-मन जैसा भेद भी नहीं है। आगम में केवली के भाव मन नहीं होता, ऐसी बात कहीं नहीं कही गई। केवली भी मन, वचन, काया की सभी बाहरी प्रवृत्ति वैसे ही करता है, जैसे साधारण पुरुष। उसका विचार ठीक वैसा ही है, जैसे अन्य पुरुषों का। अन्तर है, तो केवल इतना ही कि साधारण पुरुष के साथ उनके राग-द्वेष आदि विकार जुड़े हुए हैं। केवली खाता-पीता, चलता नहीं हो और विचार नहीं करता हो, ऐसी बात नहीं है। उसके मार्ग में चलते हुए सामने गड्ढा आ जाए, कांटे आ जाए, पेड़ आ जाये तो उनसे अलग हटकर ही चलेगा। यह अलग हटना विचारपूर्वक ही होता है। उसे देवता आकर के अलग नहीं हटाते हैं। स्वतः कुछ नहीं होता है। यहाँ तक कि मूक केवलियों के समक्ष साधक आता है, तब भी वे उपदेश नहीं देते हैं। उनकी वाणी नहीं खिरती, सभा नहीं होती है।
हमारे लिए कल्याण की बात है- केवली के द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलकर, राग-द्वेष छोड़ कर वीतराग बनने की साधना करना, नश्वर वस्तुओं से सम्बन्ध तोड़कर ध्रुव, अविनाशी तत्त्व से सम्बन्ध जोड़ना अर्थात् अविनाशित्व को प्राप्त होना। जिस प्रकार जिसे शराब नहीं पीनी है, शराब को त्यागना है, उसके लिए शराब कितने प्रकार की होती है, उससे किस
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ज्ञानावरण कर्म