________________
प्रकार सुख-दुःख मिलता है, लाभ-हानि होते हैं, आदि के ज्ञान की उसे कोई आवश्यकता नहीं होती है। इसी प्रकार जिस साधक को शरीर - संसार आदि के भोग छोड़ने व त्यागने हैं, उसके लिये शरीर व संसार से संबंधित लोक-परलोक, नरक - स्वर्ग आदि का ज्ञान होना आवश्यक नहीं है । उसे तो केवल इतने ही ज्ञान की आवश्यकता है कि इनसे मिलने वाला भोगों का सुख अनुपयोगी, अहितकर, अकल्याणकारी है, दुःखद है। अतः इनका स्वरूप कैसा भी हो, उसे तो इनसे सम्बन्ध तोड़ना ही है । जैसे जिस गाँव नहीं जाना है उसके लिए उस गाँव के बारे में जानना या उसका रास्ता पूछना कोई अर्थ नहीं रखता है, उसी प्रकार साधक के लिए किस प्रान्त, देश, विदेश तथा संसार में कितने पर्वत, नदी, झील हैं और कहाँ हैं, उनका विस्तार कितना है आदि बातों से संबंधित ज्ञान कोई अर्थ नहीं रखता है। उसे तो इस देह के रहते हुए ही इन सबसे असंग हो, देहातीत, इन्द्रियातीत, लोकातीत, कालातीत होना है ।
I
आशय यह है कि जो ज्ञान सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में सदैव ज्यों का त्यों रहता है अर्थात् जिससे कोई भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव बाहर नहीं है अर्थात् जो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, गुण व पर्याय को जानता है, जिसे कुछ भी जानना शेष नहीं रहा है, दूसरे शब्दों में जिसके ज्ञान से पूर्ण आवरण हट गया है, पूर्ण निरावरण हो गया है, आवरण का पूर्ण क्षय हो गया है, जिसका अन्त कभी भी नहीं होने वाला है, जो शाश्वत है, ऐसा अशेष, शुद्ध, पूर्ण व अनन्त ज्ञान केवलज्ञान है। यह ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से होता है। पहले विवेचन कर आए है कि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से जीव द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों को एक साथ जानने लगता है । द्रव्य का स्वभाव ही गुण है । वस्तु का ध्रुवत्व रूप द्रव्य उसका गुण है और उत्पाद- व्यय वाला रूप द्रव्य-गुण की पर्याय है। अतः द्रव्य, गुण और पयार्य के ज्ञान का अभिप्राय है- उत्पाद, व्यय और धौव्य का ज्ञान । उत्पाद - व्यय, ध्रुवत्व इन तीनों के ज्ञान को त्रिपदी ज्ञान कहते हैं। इस त्रिपदी के ज्ञान में समस्त ज्ञान समाहित है ।
त्रिपदी का ज्ञान
संसार की समस्त ऐन्द्रियक वस्तुएँ पुद्गल निर्मित हैं। उत्पाद, व्यय, सड़न, गलन, विध्वंसन इन पुद्गलों का स्वभाव है। अतः संसार की समस्त वस्तुओं में जातीय एकता है । जातीय एकता होने से जो नियम, जो सच्चाई
ज्ञानावरण कर्म
29