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हमें इस पचड़े में न पड़कर अपने सुख का भोग कर लेना चाहिए, यह विसंवाद है।
इन्हीं छः कारणों को अविनाशित्व, स्वाधीनता, शान्ति, चिन्मयता आदि किसी भी स्वाभाविक गुण, निज ज्ञान के साथ घटित किया जा सकता है। संक्षेप में कहें तो विषय-भोग समस्त दुःखों की जड़ है, इस ज्ञान का प्रभाव अपने पर न होने देना, इस ज्ञान के अनुरूप आचरण न करना, विपरीत आचरण करना, इस ज्ञान की उपेक्षा करना, इसके आचरण को वर्तमान की वस्तु न मानकर भविष्य के लिए टालना, इसे अपनाने में अपने को असमर्थ समझना, निराश होना, निज ज्ञान के प्रभाव को प्रकट न होने देना है। ज्ञान पर आवरण आना है, ज्ञानावरण कर्म है।
ज्ञानावरणीय - कर्म के बंध का सम्बन्ध मोह से है । इन्द्रिय-विषय के राग रूप मोह के कारण से ही जीव अपने ज्ञान का अनादर करता है। अतः जहाँ तक मोहनीय कर्म का उदय है वहीं तक ही ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है । मोहनीय कर्म का क्षय व उपशम होते ही ज्ञानावरणीय कर्म का बंध रुक जाता है।
ज्ञानावरण का प्रमुख कारण : ज्ञान का अनादर
उपर्युक्त दोनों स्थलों पर अथवा अन्यत्र भी ज्ञानावरणीय कर्म के बंध के कारणों में ज्ञान के अनादर की ही बात कही गई है। यहाँ पर एवं अन्यत्र किसी भी आगम में कहीं पर भी ज्ञान के साथ ज्ञानी एवं ज्ञान के उपकरण के अनादर आदि का उल्लेख नहीं है। फिर भी पूर्वाचार्यों ने ज्ञान के अनादर का अर्थ ज्ञानी व ज्ञान के साधन उपकरणों का अनादर करना लिया है। इसका कारण यही लगता है कि ज्ञान तो कोई वस्तु या व्यक्ति है नहीं, जिसका अनादर किया जाता। इसलिये गुणी में गुण का आरोप कर उपचार से ज्ञानी के अनादर को ज्ञान का अनादर कहा है, ऐसा जान पड़ता है । परन्तु यह अर्थ औपचारिक ही है, वास्तविक अर्थ तो ज्ञान का अनादर करना है । यदि शास्त्रकार को ज्ञानी का अनादर अभीष्ट होता, तो ज्ञान शब्द के साथ ज्ञानी शब्द भी लगा देते अथवा ज्ञान के स्थान पर ज्ञानी शब्द का ही प्रयोग करते, परन्तु आगम में सर्वत्र ज्ञान शब्द का ही प्रयोग किया है, ज्ञानी एवं ज्ञान के साथ साधनों, उपकरणों के अनादर का कहीं भी प्रयोग नहीं किया है। इससे लगता है कि आगमकार को ज्ञान शब्द ही अभीष्ट था। आगे इसी सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से विचार किया जा रहा है।
ज्ञानावरण कर्म
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