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दुःख लगे हुए हैं, जो किसी को भी स्वभाव से ही पसंद नहीं हैं। यह ज्ञान सबको है। अतः विषय-भोग भोगना अपने ज्ञान के विपरीत आचरण करना है। दूसरों के प्रति हिंसा, झूठ आदि अकर्त्तव्य का व्यवहार करना, उनके अधिकारों को छीनना, राग-द्वेष करना आदि 18 पापों का सेवन करना, निज ज्ञान के विपरीत आचरण करना है।
अतः यह प्रत्यनीकता है। __अपलाप-(
निनवता)-अपने ज्ञान को छिपाना-गोपन करना, उस ज्ञान का प्रभाव अपने पर न पड़ने देना । यथा-विषय-भोगों के साथ दुःख लगे होंगे तो लगे रहें, उन्हें स्मरण करने से क्या लाभ? अभी तो सुख मिल रहा है, इसे भोग लें। इस प्रकार ज्ञान के आचरण की
उपेक्षा करना निह्नवता है। 3. अन्तराय- यह माना कि विषय-भोग के साथ दुःख लगे हुए हैं।
इनके त्यागने से ही शान्ति- स्वाधीनता आदि सुखों की उपलब्धि होती है, अतः इनके त्याग में ही हित है। त्यागना तो है, परन्तु अभी तो सुख भोग लें, भविष्य में, कालान्तर में त्याग देंगे। इस प्रकार विषय-सुखों के त्याग को वर्तमान में अंगीकार न कर कालान्तर के
लिए टाल देना-ज्ञान के आचरण में अन्तराय डालना है। 4. प्रद्वेष- अहिंसा, संयम (त्याग), अपरिग्रह आदि धार्मिक अनुष्ठानों से
हमारे व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र का विकास रुक गया, हम पिछड़ गये। अतः भोगों का त्याग हमारे विकास के लिए बाधक व घातक है, भोग ही जीवन है। भोग को त्यागना अपने सब सुखों को खोना है। अतः भोगों का त्याग करना, अपनी सबसे बड़ी हानि है। यह अपने निज ज्ञान सत्य-सिद्धान्त के प्रति द्वेष करना है। आसादन- निजज्ञान का अनादर करना। विषय सुख क्षणिक है, तब भी सुख तो मिलता ही है, इसके अतिरिक्त अन्य सुख संभव ही नहीं है। अतः विषय-सुख के साथ दुःख लगा है, तो लगा रहे, हमें तो सुख भोगना है। जीवन की सार्थकता विषय-भोग में ही है। इस प्रकार सुखासक्ति में आबद्ध रहना आसादन है। . विसंवाद- विषय-भोग त्यागने पर शान्ति, स्वाधीनता, प्रसन्नता आदि मिलती है या नहीं मिलती है, इसको कौन जानता है? अतः
ज्ञानावरण कर्म