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ज्ञानावरणीय कर्म-बंध का मुख्य कारण है- ज्ञान का अनादर करना। ज्ञान का अनादर है- जानते हुए भी तदनुरूप आचरण न करना। उदाहरणार्थ-जैसे हमने संसार में लोगों को मरते देखा, श्मशान में जलकर राख का ढेर होते देखा, इससे प्रकृति के इस नियम का ज्ञान हुआ कि संसार में जो जन्मता है, वह मरता है, सब अनित्य है। अनित्य है, उसे नित्य बनाये रखने का प्रयत्न करना तथा उससे राग करना व्यर्थ है। फिर भी हम अपने इस ज्ञान का आदर न कर अनित्य पदार्थों से सम्बन्ध जोड़ते एवं उनका संग्रह करते रहें, तो यह ज्ञान या विवेक व्यर्थ हो जायेगा, इससे कुछ भी लाभ नहीं होगा। ___ जो वस्तु है ही नहीं उसका अनादर, उसका विरोध, उसकी आशातना आदि हो ही नहीं सकते। ये सब बातें जो उपस्थित या विद्यमान हैं उनके साथ ही हो सकती हैं। जैसे कोई व्यक्ति जिस शास्त्र को नहीं जानता अर्थात् परिचित नहीं है, उससे उस शास्त्रीय ज्ञान का क्या अनादर हो सकता है? शास्त्र जिस पुस्तक में लिखा है उस पुस्तक में जैसा कागज है और अक्षर लिखे हुए हैं, वैसा कागज और वे ही अक्षर अन्य क्रम से समाचार पत्र में भी हैं। समाचार पत्र में भी किसी न किसी प्रकार का ज्ञान तो है ही, तो क्या समाचार पत्र में वस्तु रखकर खाना ज्ञान का अनादर है? आगम-मुद्रण के लिए जिन अक्षरों को कम्पोज किया और मशीन पर कागज दाबकर छपाई की गई, तो क्या यह कार्य ज्ञान का अनादर हुआ? क्या इससे ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हुआ? फिर अन्य पुस्तकों की छपाई के लिये कम्पोज के उन अक्षरों को बिखेरा गया, तो क्या ज्ञान के नाश रूप अनादर का दोष लगा? क्या गणित, भूगोल, भाषा, इतिहास, विज्ञान, संगीत, नृत्य आदि विद्याएँ सीखना, साहित्य पढ़ना ज्ञान है? यदि ज्ञान है, तो साधु मुनिराज जो इन विद्याओं को नहीं सीखते, इनकी उपेक्षा या अनादर करते हैं, तो क्या उनके ज्ञान का आवरण हुआ? एकेन्द्रिय निगोद जीव तो एक शरीर में अनन्त होते हैं, वे तथा विकलेन्द्रिय आदि जीव इन छ: कारणों में से उपर्युक्त व्याख्याओं के अनुसार किसी भी कारण का सेवन नहीं करते हैं। अतः इनके ज्ञानावरणीय कर्म का बंध नहीं होना चाहिए । परन्तु आगम में कहा गया है कि उन निगोद जीवों के भी ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म का बंध उसी प्रकार सदैव निरन्तर होता रहता है, जिस प्रकार मोहनीय आदि अन्य कर्मों का बंध होता है।
ज्ञानावरण कर्म