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यदि राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, गणित, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, सांख्य, योग, मीमांसक, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई आदि के ग्रंथों को ज्ञान माना जाय और उनके अनादर को कर्म बंध का कारण माना जाए, तो जैनाचार्यों ने उनको बुरा बताकर खण्डन किया है अर्थात् इनका बहुत अनादर किया है । अतः उनके ज्ञानावरणीय का बहुत बंध हुआ, ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा माना नहीं गया है। अतः कहना होगा कि यहाँ ज्ञान शब्द से अभिप्राय में उपर्युक्त शास्त्रों के ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है तब कर्मोदय के प्रसंग में ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से गणित, दर्शन, न्याय, भाषा आदि विषयों, शास्त्रों का ज्ञान हो यह कैसे संभव है? इन विषयों का ज्ञान सीखने से होता है। यदि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता, तो क्षयोपशम होते ही स्वतः हो जाता, सीखने का श्रम नहीं करना पड़ता अर्थात् इन ग्रंथों का अधिक या कम ज्ञान होने या बिल्कुल नहीं होने से ज्ञान में कोई अन्तर नहीं पड़ता है।
ज्ञान के अनादर का अभिप्राय किसी आगम या सूत्र की पुस्तक का अनादर भी नहीं माना जा सकता है कारण कि भगवान महावीर के समय में कोई पुस्तक थी ही नहीं । अतः उस समय ज्ञान के अनादर सूचक सूत्र की रचना ही व्यर्थ हो जाती है साथ ही ग्रंथ या पुस्तक को ज्ञान मानने पर, पुस्तक जलने पर ज्ञान का भी जलना माना जायेगा। सूत्र पुस्तक के लिये जो ज्ञान का अनादर कहा जाता है, वह कथन उपचार से हो सकता है, वस्तु स्थिति से नहीं है। अतः किसी पुस्तक का अनादर, ज्ञान का अनादर नहीं माना जा सकता ।
यदि ज्ञान शब्द के अर्थ में ज्ञानी व्यक्ति, ज्ञेय वस्तुएँ, ज्ञान की पुस्तकें ग्रहण करेंगे, तब दर्शनावरणीय शब्द में प्रयुक्त दर्शन के अर्थ में भी दर्शक व्यक्ति, दृश्य वस्तुएँ, दर्शन कराने में सहायक ऐनक आदि को ग्रहण करना होगा। क्योंकि जैनागमों में दर्शनावरणीय कर्म बंध के भी वे ही छः कारण दर्शन के साथ लगाकर बताये गये हैं, जो ज्ञान के साथ लगाकर बताये हैं अर्थात् दर्शन का अनादर करना, विरोध करना आदि। इन सबके अर्थ यहाँ दर्शनपरक होंगे और चक्षुदर्शनीय शब्द में अभिप्रेत मनुष्य, पशु-पक्षी, मक्खी, मच्छर, मनुष्य आदि के साथ कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे, आग, जल, पृथ्वी आदि दृश्य पदार्थों का भी व इनका दर्शन करने वाले द्रष्टा का भी
ज्ञानावरण कर्म
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