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सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक विधान (नियम) एक ही है। अतः जो नियम अणु में कार्य कर रहा है, वही नियम ब्रह्माण्ड में काम कर रहा है। यही नहीं, जो नियम जीवन की एक घटना में काम कर रहा है, वही नियम सबके जीवन की सब घटनाओं में काम करता है। इसीलिए जो प्रकृति के एक नियम को अर्थात् तथ्य को जान लेता है, वह प्रकृति के सब तथ्यों को जान लेता है अर्थात् सर्वज्ञ हो जाता है। सम्पूर्ण संसार (ब्रह्माण्ड) का संचरण-संसरण एक ही नियम से हो रहा है। यह है गुरुत्वाकर्षण का नियम, आकर्षण-विकर्षण का नियम। यही नियम परमाणु से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में काम करता है। इसी नियम से पूरा संसार बंधा हुआ है। संसार में, जड और चेतन में जो संचरण-गति- हलचल हो रही है, वह इसी आकर्षण-विकर्षण के नियमानुसार हो रही है। चेतन में वह आकर्षण राग रूप में और विकर्षण द्वेष रूप में प्रकट होता है। इसी राग-द्वेष से जीव बंधन को प्राप्त होकर संसार–परिभ्रमण कर रहा है। राग से ही जीव शरीर और संसार से बंधा हुआ है।
राग-द्वेष एवं मोह से, कामना-वासना एवं ममता-अहंता से, आरम्भ-परिग्रह एवं विषय कषाय से अशान्ति, पराधीनता और दुःख उत्पन्न होता है और इनके त्याग से शान्ति, मुक्ति, प्रसन्नता की उपलब्धि होती है। यही धर्म है, यही अनुभूत सत्य है और यही नियम है। इस एक नियम के जानने से धर्म या जीवन के सारे नियमों का ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार संसार के सम्बन्ध में एक नियम है कि जो उत्पन्न होता है, वह व्यय (नाश) को भी प्राप्त होता है। अर्थात् उस रूप में उसका अस्तित्व नहीं रहता है। उसमें निरन्तर रूपान्तर होता रहता है। यही नियम देश-प्रदेश, परमाणुस्कन्ध आदि सब पर समान रूप से लागू होता है। स्कंध, परमाणुओं का एवं प्रदेशों का समुदाय मात्र है। यदि परमाणु स्नेह (आकर्षण) गुण से रहित हो जाएँ, तो वे बंधनरहित हो स्वतंत्र-स्वाधीन हो जाएंगे। स्कंध का निर्माण ही नहीं होगा। अतः सम्पूर्ण संसार के संचरण में उत्पाद-व्याय, आकर्षण-विकर्षण, स्नेह-रुक्ष का नियम ही काम कर रहा है। जो भी संसार में उत्पन्न होता है, उसका विनाश, लोप या अभाव अवश्यम्भावी है, उससे राग-द्वेष करना भूल है, प्रमाद है। जहाँ प्रमाद है, वहाँ विनाश है। प्रमाद के त्याग में ही विकास निहित है।
ज्ञानावरण कर्म
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