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जानना शेष नहीं रहता है, ऐसा अशेष, अनन्त ज्ञान केवलज्ञान है। इस ज्ञान पर आवरण आना केवल ज्ञानावरण है। केवलज्ञान के सम्बन्ध में धवला टीका में कहा गया है
दव्व-गुण-पज्जए जे जस्द एणय ण जाणदे जीवो। तस्य क्वएण यो च्चिय जाणदिसव्वं वयं जुगवं।।
-धवला पुस्तक 7, पृ. 14 जिस ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों को नहीं जानता है, उसी ज्ञानावरण कर्म के क्षय से वही जीव इन सभी तीनों को एक साथ जानने लगता है। __ केवलज्ञान को आवरित करने वाला कर्म केवल ज्ञानावरण कहा जाता है। जिज्ञासा पैदा होती है कि आवरण किसी वस्तु पर होता है, यदि वस्तु ही नहीं हो, तो फिर आवरण किस पर होगा। इस दृष्टि से केवलज्ञान का अस्तित्व होने पर ही केवलज्ञानावरण कर्म का होना संभव है और यह सर्वमान्य है कि सभी प्राणियों के केवलज्ञानावरण कर्म का बंध, सत्ता, उदय है। अतः विचार यह करना है कि प्राणिमात्र में सदैव केवलज्ञान विद्यमान रहता है, इसे कैसे समझा जा सकता है।
इसी जिज्ञासा का समाधान ढूंढने के पूर्व केवलज्ञान किसे कहते हैं, यह जानना आवश्यक है। इसके लिए कषाय पाहुड की टीका में श्री वीरसेनाचार्य द्वारा प्रतिपादित व्याख्या यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं:'केवलमयलयं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात्।।
-कषाय पाहुड़ पुस्तक 1/1.1, पृष्ठ 15 अर्थात् असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते है, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित होता है। अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रिय, प्रकाश, मन (चिन्तन) आदि किसी भी आश्रय या माध्यम की सहायता के बिना ही हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं। प्रकारान्तर से कहें, तो जो ज्ञान बिना किसी 'पर' के आश्रय से स्वतः प्रादुर्भूत हो, स्वयंभू हो, स्वतः उद्भूत हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं। इसमें तर्क नहीं होता।
यहाँ विचार यह करना है कि ऐसा ज्ञान कौनसा है जिसमें तर्क उत्पन्न नहीं होता, तो कहना होगा कि ऐसा स्वयं सिद्ध स्वभाव का ज्ञान
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ज्ञानावरण कर्म