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मनःपर्याय ज्ञान और मतिज्ञान में अन्तर यह है कि मतिज्ञान में मन से संबंधित अवग्रह, ईहा आदि होती है। मतिज्ञान में स्वयं के द्वारा संचालित मानसिक क्रियाएँ, संकल्प-विकल्प, चिंतन-मनन होता है। इसमें जीव का मन संचालन करने वाला, कर्ता-भोक्ता होता है। मनः पर्याय ज्ञान में साधक अपनी ओर से कुछ भी चिंतन-मनन, संकल्प-विकल्प नहीं करता है। मन से असंग व तटस्थ रहता है। साधक के न चाहने पर भी स्वतः मानसिक चिंतन, व्यर्थ चिंतन होता है। इस चिंतन में अपने पूर्व जीवन में भोगे हुए विषयों का तथा भविष्य में भोगने की इच्छा किए गए विषय-सुखों का अंकित प्रभाव प्रकट (उदय) होता है। इसमें साधक मन की पर्यायों का कर्ता-भोक्ता नहीं होता है, उनका विरोध- निरोध तथा अनुरोध नहीं करता है, प्रत्युत उनसे असंग, तटस्थ रहता हुआ उनको जानता है। इससे अंतःकरण (कारण-कार्मण शरीर) में स्थित भोगों का अंकित भाव व्यर्थ चिंतन के रूप में उदय(उत्पन्न) होकर नष्ट (निर्जरित) हो जाता है, क्योंकि यह नैसर्गिक नियम है कि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका नाश होता है। ___ मनःपर्याय ज्ञान उन्हीं साधकों को होता है, जो संयमी हैं, विषय-भोगों के सुख से विरत हैं। वे ही अंतर्मुखी हो मन की पर्यायों को मन से असंग होकर जान सकते हैं। विषय- भोगों के सुख में आबद्ध भोगी (असंयमी) जीव का मानसिक चिंतन भोगासक्ति से युक्त होता है। उसके मन में भोगों से संबंधित संकल्प-विकल्प का प्रवाह चलता रहता है। किसी न किसी विषय सुख से संबंधित चिंतन उसके मन में चलता रहता है। अतः वह अंतर्मुखी नहीं हो पाता। वह मन से अलग हटकर, तटस्थ होकर जान नहीं सकता । अतः भोगी (असंयमी) व्यक्ति को मनःपर्याय ज्ञान नहीं हो सकता। संयमी साधक अंतर्मुखी हो मन को शांत करता है, तब पहले के भुक्त-अभुक्त भोगों का अंकित प्रभाव व्यर्थ चिंतन के रूप में प्रकट (उदय) होता है। मन की इन प्रवाहमान, परिवर्तनशील पर्यायों को उनसे परे, तटस्थ रहते हुए समभावपूर्वक जानना मनःपर्याय ज्ञान है। इस ज्ञान का प्रकट न होना इस पर आवरण आना, मनःपर्याय ज्ञानावरण है। केवलज्ञान और केवलज्ञानावरण
बिना किसी अन्य माध्यम के आत्मा के द्वारा समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। अर्थात् जिसमें कुछ भी
25 ज्ञानावरण कर्म