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यहाँ यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ज्ञानावरणीय कर्म का बंध भी आत्मा ही करती है और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय भी आत्मा ही करती है। संसारी छद्मस्थ जीव के हर समय ज्ञानावरणीय कर्म के निर्जरा और बंध होते रहते हैं। ये दोनों कार्य परस्पर विरोधी हैं, अतः एक ही समय में आत्मा ये दोनों कार्य कैसे करती है?
उपर्युक्त जिज्ञासा पर विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि ज्ञानावरण कर्म को सत्ता आत्मा से ही मिली है। आत्मा में रही हुई आसक्ति व कषाय से ही कर्म सत्ता को प्राप्त होते हैं। पर बड़े आश्चर्य की बात यह है कि कर्म जिससे सत्ता पाते हैं, उसी आत्मा को ढक देते हैं, आवरित कर देते हैं और उसी आत्मा से उनके क्षय का ज्ञान होता है। जिस प्रकार सूर्य की धूप के ताप से जल की भाप उत्पन्न हो, बादल बनकर वे सूर्य को ढक लेते हैं और उन बादलों को छिन्न-भिन्न करने में सूर्य ही समर्थ होता है, इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान जब विषय-भोगों की वस्तुओं से भेदभाव व अभेदभाव का सम्बन्ध स्थापित करता है अर्थात् वह जड़ वस्तुओं के अस्तित्व को अपना जीवन मान लेता है तथा वस्तुओं में अपनत्व भाव करता है, तब उसमें जड़ता आ जाती है और उसका ज्ञान गुण आवरित हो जाता है और जब वही आत्मा अपने विवेक से वस्तुओं की क्षणभंगुरता, अनित्यता, असारता, पराधीनता आदि के ज्ञान के प्रभाव को अपनाता है, तो वस्तुओं से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, जिससे वस्तुओं से अतीत अवस्था का अर्थात् निजस्वरूप का अनुभव हो जाता है, फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है अर्थात् पूर्ण तत्त्वज्ञान, केवलज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा अविवेकजन्य अज्ञान के प्रभाव से विषय-कषाय तथा भोगों का सेवन कर ज्ञानावरण आदि कर्मों को बांध लेता है और विवेकजन्य ज्ञान के प्रभाव से विषय-भोगों का त्याग कर कर्म क्षय कर लेता है।
इन्द्रियों से रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों का ज्ञान होता है, फिर इनके भोग की इच्छा उत्पन्न होती है या भोग्य पदार्थों के प्रति अहंभाव व ममभाव पैदा होता है। ममभाव से वस्तुएँ सुन्दर-सुखद लगती हैं, यह मति अज्ञान का प्रभाव है। इससे शरीर आदि पौद्गलिक पदार्थों के अस्तित्व में ही अपना अस्तित्व और वस्तुओं के अभाव में अपना अभाव भासने लगता
ज्ञानावरण कर्म