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भोगों का कभी अंत न हो, ये भोग सदा बने रहें, यह प्रयत्न करना अनन्तानुबंधी कषाय है। इन भोगों (असंयम) के साथ लगे दुःखों का प्रभाव न होना, अप्रत्याख्यानावरण है। संयम जन्य सुखों की माँग न होना प्रत्याख्यानावरण है तथा भुक्त भोगों के प्रभाव से भोग भोगने की स्फुरणा होना, भोगों के प्रति आकर्षण होना संज्वलन कषाय है। ये सभी कषाय ज्ञान-दर्शन गुणों के घातक व आवरण के हेतु हैं। इन कषायों के क्षीण होने से ज्ञान-दर्शन गुण का आवरण घटता जाता है और कषायों का पूर्ण क्षय होते ही ये गुण पूर्ण ज्ञान व पूर्ण दर्शन के रूप में प्रकट होते हैं, जिन्हें केवल ज्ञान व केवल दर्शन कहा जाता है।
श्रुतज्ञान का प्रभाव न होना ही श्रुतज्ञान पर आवरण आना है। अर्थात् स्वाधीनता की मांग का जागृत न होना, इन्द्रिय भोगजन्य पराधीनता में आबद्ध रहना, यह अपने निज ज्ञान का, श्रुतज्ञान का अनादर करना है। अनेक विषयों की अधिक व कम जानकारी होने या न होने से श्रुतज्ञान घटता-बढ़ता नहीं है, क्योंकि जानकारी होना और न होना, ज्ञान के उपयोग का घटना-बढ़ना है, ज्ञान गुण का घटना-बढ़ना नहीं है। ज्ञान गुण के आवरण का घटना-बढ़ना तो अपने स्वाभाविक ज्ञान के आदर करने या न करने पर निर्भर है। जो अपने निजज्ञान का, स्वाभाविक ज्ञान का, श्रुतज्ञान का जितना आदर करता है अर्थात् विषयभोगों के सुखों को छोड़ता है, उतना ही उसके ज्ञान का आवरण हटता है। आगमों में व उनकी टीका, भाष्य आदि में पाँच ज्ञानों में श्रुतज्ञान का विशेष महत्त्व बताया है। श्रुतज्ञान के प्रकार
ज्ञान-निरूपण के प्रमुख आगम 'नंदीसूत्र' में श्रुतज्ञान के 14 प्रकार कहे हैं, यथा- 1. अक्षर श्रुत, 2. अनक्षर श्रुत, 3. संज्ञी श्रुत, 4. असंज्ञी श्रुत, 5. सम्यक् श्रुत, 6. मिथ्या श्रुत, 7. सादि श्रुत, 8. अनादि श्रुत, 9. सपर्यवसित श्रुत, 10. पर्यवसित श्रुत, 11. गमिक श्रुत, 12. अगमिक श्रुत, 13. अंग प्रविष्ट श्रुत और 14. अंग बाह्य श्रुत।
इनका क्रमशः स्वरूप इस प्रकार है1. अक्षर श्रुत- क्षरण रहित, अविनाशी ध्रुवत्व एवं सत्य का ज्ञान
अक्षरश्रुत है अर्थात् ध्रुवाचरण इष्ट होना अक्षर श्रुत है।
ज्ञानावरण कर्म