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3. नन्दीसूत्र के सूत्र 56 से 60 तक में मन को नो इन्द्रिय कहा है, अनिन्द्रिय नहीं कहा है।
4. यदि मन से श्रुतज्ञान या श्रुतअज्ञान की उत्पत्ति मानी जाय तो एकेन्द्रिय से असन्नी पंचेन्द्रिय तक मन नहीं होने से श्रुतज्ञान का अभाव होने का प्रसंग उत्पन्न हो जाएगा, जो आगमविरुद्ध है ।
5. नोकषाय, नोकर्म आदि में नो निषेध का वाचक नहीं है, अपितु निमित्त कारण रूप में कार्य में सहायक रूप है, अतः अकषाय का अर्थ नोकषाय नहीं है ।
6. अनिन्द्रिय का अर्थ मन या नोइन्द्रिय लगाना युक्तिसंगत नहीं है । जैसे अकषाय का अर्थ कषायरहित होना है, नोकषाय नहीं है, अकर्म का अर्थ कर्मरहित होना है, नोकर्म नहीं है, इसी प्रकार अनिन्द्रिय का अर्थ इन्द्रियरहित होना है, नो इन्द्रिय ( मन ) नहीं है ।
जैन दर्शन के अनुसार श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम प्राणिमात्र को है अर्थात् ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिसे किसी न किसी अंश में श्रुतज्ञान न हो। प्राणिमात्र में किसी न किस अंश में श्रुतज्ञान सदैव रहता है, भले ही उसके श्रोत्र इन्द्रिय (कान) नहीं हो। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि जो श्रोत्रेन्द्रिय से सुना जाय, वह ज्ञान श्रुतज्ञान नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार जो कान से सुनाई दे, उसे श्रोत्रेन्द्रिय मतिज्ञान कहा है, जिसके अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा भेद हैं और जिसे श्रोत्रेन्द्रिय मतिज्ञान नहीं होता है, उसके भी श्रुतज्ञान होता है । मिथ्यात्वी प्राणी का वही श्रुतज्ञान श्रुतअज्ञान कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि श्रुतज्ञान सुनाई देने या नहीं सुनाई देने से संबंधित नहीं है, प्रत्युत इससे भिन्न है। कान से सुनाई देने वाला श्रोत्रेन्द्रिय मतिज्ञान या मति अज्ञान है । इस ज्ञान या अज्ञान के पहले जो दर्शन होता है, वह अचक्षु दर्शन है । इस अचक्षुदर्शन के श्रोत्रेन्द्रिय अचक्षुदर्शन, घ्राणेन्द्रिय अचक्षुदर्शन आदि भेद नहीं हैं कारण कि श्रोत्र, घ्राण, रसना तथा स्पर्शनेन्द्रिय से होने वाला दर्शन समान ही होता है उसमें विकल्प या भेद नहीं होता है ।
केवलज्ञानी के ज्ञान और अन्य प्राणियों के श्रुतज्ञान में जातीय एकता है । आवरण के कारण अभिव्यक्ति का अन्तर है । केवलज्ञानी के ज्ञान से अन्य प्राणियों का श्रुतज्ञान भिन्न जाति का हो ऐसा नहीं है, केवल
ज्ञानावरण कर्म
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