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कुछ अनुवाद एवं टीकाग्रन्थों में 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' (तत्त्वार्थसूत्र 1.23) सूत्र के 'अनिन्द्रिय' शब्द का अर्थ मन किया है, जो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है, कारण कि मन से सम्बन्धित ज्ञान चार प्रकार का है- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । ये चारों प्रकार मतिज्ञान के स्वरूप हैं। यही नहीं, 'बद्धि' ज्ञान को भी मतिज्ञान में ही स्थान दिया गया है। अतः अनिन्द्रिय ज्ञान को मानसिक ज्ञान मानना उचित नहीं लगता है। इस भ्रान्ति का कारण सम्भवतः आगम में प्रयुक्त 'नो इन्द्रिय' शब्द है, जो मन का सूचक है। जो इन्द्रिय के लिए सहायक है वह नो इन्द्रिय है। 'नो इन्द्रिय' में 'नो निषेधात्मक अर्थ का द्योतक नहीं है, प्रत्युत सहायक एवं निमित्त अर्थ का बोधक है। उदाहरणार्थ नोकषाय, नोकर्म आदि शब्दों में नोकषाय का अर्थ कषाय में सहायक एवं निमित्त होना माना गया है। नोकषाय के जो रति-अरति, हर्ष-शोक आदि नौ भेद हैं वे मोह के सहायक रूप हैं। 'नोकर्म' शब्द का अर्थ कर्मोदय में सहायक होना है। (देखें, गोम्मटसार कर्मकाण्ड) जबकि अनिन्द्रिय में विद्यमान अन् (न) का मुख्य अर्थ निषेधात्मक है, अभाव, अल्प आदि अर्थ भी गृहीत हैं।
1. गोम्मटसार में श्रुतज्ञानावरण का नोकर्म अर्थात् निमित्त कारण मतिज्ञान को कहा है अर्थात् मतिज्ञान के प्रभाव से श्रुतज्ञान पर आवरण आना निरूपित है। जो श्रुतज्ञान के आवरण का कारण है अर्थात् श्रुतज्ञान में बाधक है, उससे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति मानना भूल है। पडविनयपदि दव्वं मदिमुदवाघादकरणअंजुत्तं।
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 70 पट (वस्त्र) आदि इन्द्रिय-विषयों पर आवरण का कारण होने से उन्हें मतिज्ञानावरण का नोकर्म कहा है और इन्द्रिय विषयों की भोगासक्ति को श्रुतज्ञान का नोकर्म कहा है । तात्पर्य यह है कि मतिज्ञान श्रुतज्ञान के प्रकट होने में व्याघातक है। इस प्रकार जो श्रुतज्ञान का बाधक है, उसे श्रुतज्ञान का सहायक एवं प्रकट करने वाला मानना कहाँ तक उचित है?
2. पाँचों इन्द्रिय और मन इन छहों के ज्ञान के चार भेद ही हैं, अन्य भेद नहीं हैं। चार भेद हैं- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अतः मनोजन्य ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के अतिरिक्त नहीं हो सकता।
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ज्ञानावरण कर्म