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श्रुतज्ञान और इसका माहात्म्य ___मतिज्ञान आदि पाँचों ज्ञानों में साधक के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान के पश्चात् होता है। मतिज्ञान है इन्द्रिय और मन के माध्यम से उत्पन्न होने वाला ज्ञान। कान से शब्द , आँख से रंग, नाक से गंध, जीभ से रस, स्पर्श से शीत, उष्ण, कोमल, कठोर आदि विषयों का ज्ञान होता है। इसी इन्द्रिय ज्ञान के प्रति मनोज्ञ- अमनोज्ञ भाव पैदा होता है। मनोज्ञ विषयों के प्रति भोग की रुचि व राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति अरुचि व द्वेष उत्पन्न होता है। यही राग-द्वेष समस्त दोषों, कर्मबंध एवं संसार- परिभ्रमण का कारण है। ___मतिज्ञान से जिन विषयों की जानकारी हई, उनके सम्बन्ध में निष्कर्ष व निर्णय दो दृष्टियों से होता है, जिन्हें क्रमशः श्रुत अज्ञान एवं श्रुतज्ञान कहा जा सकता है। जो इस प्रकार है- प्रथम दृष्टि यह है कि मतिज्ञान से जिन विषयों को जाना है, उनका सुनना, दिखना, खाना, पीना आदि विषयों के भोग में ही सुख है, सुख इन्द्रियों और मन से संबंधित भोग भोगने से ही मिलता है, भोगों का सुख ही जीवन है, भोग्य पदार्थ सुन्दर, स्थायी व सुखद है। इस सुख के बिना जीवन व्यर्थ है, अतः भोगों के सुख को सुरक्षित रखना व संवर्धन करना है। इस ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा है। इस मिथ्यात्व-युक्त श्रुतज्ञान को श्रुतअज्ञान कहा है, क्योंकि इस श्रुत अज्ञान के रहते इन्द्रिय व मन से जिन विषयों का ज्ञान होता है, उससे भोग की इच्छा जागृत होती है, तथा वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति ममता, कामना, राग-द्वेष पैदा होते हैं एवं देहाभिमान पुष्ट होता है। इस श्रुतअज्ञान के कारण अवधिज्ञान में भी जिन रूपी पदार्थों का साक्षात्कार होता है उनके प्रति भी कामना, ममता, राग-द्वेष आदि पैदा होते हैं, इसलिये वह विभंगज्ञान कहा जाता है। श्रुतअज्ञान जिस मतिज्ञान व अवधिज्ञान के साथ होता है, वह ज्ञान विषय-कषाय की वृद्धि करने वाला होता है। अतः जीव के लिये अहितकर होता है। जिस ज्ञान से जीव का अहित हो, उसे आगम में अज्ञान व मिथ्यादर्शन कहा है।
द्वितीय दृष्टि यह है कि मतिज्ञान ने इन्द्रियों के जिन विषयों को जाना है, उन विषयों के भोग से जिस सुख की प्रतीति होती है, वह सुख क्षणिक है, सुखाभास है, वास्तविक सुख नहीं है। यह दृष्टि सम्यकदर्शन
ज्ञानावरण कर्म