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वीतराग का ज्ञान निज ज्ञान होता है। सुना हुआ, पढ़ा हुआ, पराया ज्ञान नहीं होता अर्थात् स्वयंसिद्ध ज्ञान होता है। यह नियम है कि स्वयं ज्ञान या स्वयं सिद्धि रूप ज्ञान सार्वलौकिक व त्रैकालिक होता है। लोक में आबद्ध न होने से सार्वलौकिक या अलौकिक होता है। वह तीनों कालों में समान रूप से एक-सा होता है। वह कालातीत होता है। उसमें परिवर्तन नहीं होता है। जैसे पराधीनता, मृत्यु, दुःख एवं रोग बुरा है तथा स्वाधीनता, अमरत्व, सुख एवं आरोग्य अच्छा है, अभीष्ट है, यह ज्ञान स्वयं सिद्ध होने से तीनों लोकों व तीनों कालों में समान रूप से रहता है। यह ज्ञान पुरातन, अद्यतन, नूतन न होकर सनातन व शाश्वत होता है। अतः यह त्रिकालवर्ती होता है। अविनाशी या अन्तरहित होने से यह ज्ञान अनन्त ज्ञान है। श्रुतज्ञान से केवलज्ञान का प्रकटीकरण
सारांश यह है कि अनन्त ज्ञान या केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण श्रुतज्ञान ही है, अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान नहीं है। अवधि ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान के अभाव में भी केवलज्ञान हो जाता है। केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में जातीय एकता है और गुणों की भिन्नता है क्योंकि श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, ये दोनों जीव के स्वभाव के, साध्य के, सिद्ध अवस्था के सूचक हैं, अतः इनमें जातीय एकता है। गुण की दृष्टि से केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में यह अन्तर है कि केवलज्ञान में श्रुतज्ञान के अनुरूप पूर्ण शुद्ध आचरण होता है, अनुभव होता है, दर्शन होता है अर्थात् केवल दर्शन होता है जबकि श्रुतज्ञान में ज्ञान के अनुरूप आंशिक आचरण होता है, परन्तु दर्शन नहीं होता है। जैसा कि कहा है
सुदणाणं केवलं च दोण्णि वि सरिसाणि होति बोहादो। सुद णाणं तु परोक्खं, पच्चक्खं केवलं णाणं ।। -गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 369
श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं, परन्तु श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। यही तथ्य श्वेताम्बर आगम नंदीसूत्र आदि में भी उपलब्ध है। आशय यह है कि श्रुतज्ञान में साध्य की उपलब्धि की माँग होती है जबकि केवलज्ञान में उसकी उपलब्धि व अनुभूति होती है। जैसा कि नन्दीसूत्र में कहा है कि श्रुतज्ञानी केवल जानता है और केवलज्ञानी जानता भी है और देखता भी है।
ज्ञानावरण कर्म