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आचरण करता हुआ कषाय का ह्रास करता है और दशवें गुणस्थान पर पहुँचता है, तब वहाँ सूक्ष्म संपराय अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म कषाय संज्वलन लोभ का उदय रह जाता है, जो ज्ञान के प्रभाव की पूर्णता में कमी रहने का अर्थात् चारित्र की अपूर्णता का द्योतक है, इसलिए यहाँ तक ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। जब राग के उदय का पूर्ण अभाव हो जाता है, तब ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण क्षय हो जाता है। वीतराग अवस्था प्रकट हो जाती है और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
यह नियम है कि जितना- जितना ज्ञान गुण का प्रभाव होता जाता है, उतना-उतना ज्ञान के अनुरूप आचरण होता जाता है अर्थात् विभाव घटता जाता है, स्वभाव प्रकट होता जाता है। स्वभाव का प्रकट होना ही चारित्र में वृद्धि होना है। चारित्र में वृद्धि होकर चारित्र की पूर्णता हो जाती है, तब ज्ञानावरणीय आदि कर्म नहीं बंधते हैं। पूर्णता में तरतमता, न्यूनाधिकता नहीं होती है। इसीलिए यथाख्यात चारित्र का पज्जव (पर्याय-अवस्था) एक ही होता है। (भगवती सूत्र शतक 25 उद्देशक 7 में चारित्रक पज्जव में यथाख्यात चारित्र का एक पज्जव कहा है।) यथाख्यात चारित्र मोहनीय कर्म की अनुदय अवस्था अर्थात् उपशान्त मोहनीय या क्षीण मोहनीय की अवस्था है। अशुभ योग (प्रवृत्ति) की पूर्ण निवृत्ति और शुभ योग में स्वतः प्रवृत्ति ही चारित्र की पूर्णता है। दूसरे शब्दों में कहें तो संयम का, समिति-गुप्ति का पूर्ण पालन करना ही चारित्र की पूर्णता है। इसलिए जिन्हें केवल पाँच समिति- तीन गुप्ति का ज्ञान है, वे भी अपने इस ज्ञान का पूर्ण आदर कर बारहवें गुणस्थान क्षीण मोहनीय में पहुँच जाते हैं और केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। अभिप्राय यह है कि मुक्ति-प्राप्ति के लक्ष्य वाले साधक के लिए जानकारी से अधिक महत्त्व ज्ञान के अनुरूप आचरण करने का है। ज्ञान के अनुरूप आचरण करने से ज्ञानावरणीय तथा मोहनीय कर्म क्षीण होता है, जिससे सम्यग्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र होता है। चारित्र की पूर्णता में ही वीतरागता है। वीतरागता का फल मुक्ति है। अभवी मिथ्यात्वी जीव भी नौ पूर्व का ज्ञान कर लेता है, परन्तु उस ज्ञान का प्रभाव उस पर नहीं होता है अर्थात् वह उस ज्ञान को अपने आचरण में नहीं लाता है। अतः नौ पूर्व का ज्ञान होने पर भी वह पहले गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट ज्ञान गुण मिथ्यात्व
ज्ञानावरण कर्म