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के कारण अज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इससे उसके ज्ञान गुण का उपयोग ही बढ़ा, क्षयोपशम नहीं बढ़ा। जबकि केवल पाँच समितितीन गुप्ति का ज्ञान रखने वाला, उस ज्ञान को अपने आचरण में लाकर वीतराग केवली हो जाता है। अतः महत्त्व ज्ञान के आचरण का है।
रागग्रस्त प्राणी विषय-सुख की दासता में आबद्ध होकर अपने ज्ञान का अनादर करता है अर्थात् ज्ञान के अनुरूप आचरण नहीं करता है, उसके जीवन में अपने ज्ञान की प्रभा या प्रभाव प्रकट नहीं होता है अर्थात् उसके ज्ञान पर आवरण रहता है। परन्तु जैसे-जैसे राग में कमी आती जाती है, वैसे-वैसे ज्ञान के अनुरूप आचरण होने लगता है, जिससे ज्ञान के प्रभाव रूप प्रभा जीवन में प्रकट होने लगती है। ज्ञान और जीवन में भिन्नता व दूरी कम होने लगती है अर्थात् ज्ञान का आवरण हटता जाता है। ज्ञान और जीवन में एकता आती जाती है। अर्थात् ज्ञान के अनुरूप आचरण होता जाता है। राग का सर्वथा अभाव हो जाने पर, वीतराग होने पर, ज्ञान के अनुरूप पूर्ण आचरण हो जाता है। फिर ज्ञान और आचरण में, ज्ञान और जीवन में भिन्नता, भेद व दूरी नहीं रहती है, अर्थात् ज्ञान का आवरण पूर्ण हटकर ज्ञान की पूर्ण प्रभा व प्रभाव सदा के लिए प्रकट हो जाता है। यह ज्ञान राग आदि दोषों व विकृतियों से रहित होने से शुद्ध ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान रूप होता है तथा पूर्ण व सदा के लिए होने से अनन्त ज्ञान रूप होता है।
अथवा यों कहें कि जब तक विषय सुख भोगने का राग है, तब तक ही संसार से कुछ पाना व करना शेष रहता है। राग रहित होने पर न तो शरीर, इन्द्रिय, संसार से सुख भोगना शेष रहता है और न कुछ पाना शेष रहता है। भोगना व पाना शेष नहीं रहने पर करना शेष नहीं रहता है। भोगना, पाना व करना शेष न रहने पर जानना शेष नहीं रहता। कारण कि जिस गाँव जाना ही नहीं, उस गांव का रास्ता जानना व्यर्थ है, निष्प्रयोजन है। यदि निष्प्रयोजन रास्ता जानना उचित व आवश्यक होता तो संसार के करोड़ों गाँवों के रास्तों का ज्ञान करना होता। परन्तु ऐसा नहीं होता है। आशय यह है कि वीतराग को कुछ जानना शेष नहीं रहता अतः वह सर्वज्ञ होता है। अशेष ज्ञान पूर्ण ज्ञान होता है। यह पूर्ण ज्ञान अन्त रहित होता है, अनन्त ज्ञान होता है।
ज्ञानावरण कर्म