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ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम व क्षय होता है ज्ञान का आदर करने से अर्थात् स्वाभाविक ज्ञान श्रुतज्ञान के अनुरूप आचरण कर कषाय को क्षीण करने से, चारित्र मोहनीय कर्म को क्षीण करने से, चारित्र की शुद्धि से। इसलिए कोई व्यक्ति भूगोल, खगोल, गणित, इतिहास, साहित्य, कला, विज्ञान आदि विषयों को न जाने या बहुत जान ले, इससे ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने वाले ज्ञान गुण में कोई अन्तर नहीं पड़ता है, ज्ञान गुण घटता-बढ़ता नहीं है। वर्तमान में इन विषयों का जितना ज्ञान है, कुछ शताब्दी पूर्व तक इसका शतांश भी ज्ञान किसी को नहीं था। इससे यह मान लेना कि वर्तमान में पहले से ज्ञान सैकड़ों गुना अधिक बढ़ गया है, भूल है। ज्ञान नहीं बढ़ा है, इन्द्रियज्ञान का उपयोग घटता-बढ़ता है। क्योंकि ज्ञान तो आत्मा का गुण है। गुण की वृद्धि कभी अहितकर नहीं हो सकती। जिस ज्ञान से विषय-कषाय, राग-द्वेष-मोह में वृद्धि हो, वह ज्ञान आत्मा का गुण नहीं है, अपितु ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, ज्ञान का अनादर है। जिस ज्ञान से विषय भोगों की रुचि जगे, आरंभ-परिग्रह की वृद्धि हो, काम, क्रोध, मद, लोभ, अहं का पोषण हो, वह ज्ञान के अनादर का फल है, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का फल नहीं है, औदयिक भाव है। अतः विषय-कषायवर्धक ज्ञान को ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम मानना, युक्तिसंगत नहीं है। श्रुतज्ञान एवं श्रुतज्ञानावरण
श्रूयते आत्मना तदिति श्रुतं (विशेषावश्यकभाष्य वृत्ति, गाथा 81) अर्थात् अपने आप से सुनना श्रुत है। कहा भी है- श्रुतमनिन्द्रियस्य (तत्त्वार्थ सूत्र अ. 2 सूत्र 22) अर्थात् श्रुतज्ञान इन्द्रिय का विषय नहीं है। अतः इसका श्रोत्रेन्द्रिय से सुनाई देने वाले अक्षर, शब्द आदि से सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध निज स्वभाव के स्वाभाविक ज्ञान से है, यथाप्राणिमात्र को स्वभाव से ही अमरत्व (ध्रुवत्व), स्वाधीनता, प्रसन्नता आदि सिद्धों के गुण इष्ट हैं। यह ज्ञान स्वयं सिद्ध है, निज ज्ञान है। यह किसी पुरुष की देन नहीं है, अतः अपौरुषेय है। इसे श्रुति या वेद ज्ञान भी कहा जा सकता है। इसका कार्य है मतिज्ञान के द्वारा ज्ञात विषयों में हेय-उपादेय का, इष्ट-अनिष्ट का निर्णय करना। इस पर आवरण आना-इसका प्रभाव न होना, श्रुतज्ञानावरण है। प्रकारान्तर से कहें तो जो
ज्ञानावरण कर्म