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ज्ञानावरण कर्म
ज्ञानावरण कर्म का स्वरूप
जैन-दर्शन में कर्म आठ हैं। इनमें ज्ञानावरण कर्म पहला है। 'ज्ञानावरण' शब्द 'ज्ञान' और 'आवरण' इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है, ज्ञान पर आवरण आना । जो वस्तु विद्यमान हो उसे ढक देना, प्रकट न होने देना, आवरण है । जैसे सूर्य है, परन्तु बादलों के आ जाने से वह दिखाई नहीं देता है, उसकी प्रभा पूर्ण प्रकट नहीं होती है। बादल सूर्य व उसकी प्रभा पर आवरण है । इसी प्रकार ज्ञान गुण की प्रभा प्रकट न होना अर्थात् ज्ञान का पूर्ण प्रभाव (प्रभा) न होना, ज्ञानावरण है। यदि वस्तु का अभाव हो तो उस पर आवरण नहीं हो सकता । ज्ञान की विद्यमानता के अभाव में ज्ञान पर आवरण नहीं आ सकता अर्थात् प्राणिमात्र में ज्ञान सदैव विद्यमान है । वह है जीव का निज ज्ञान, स्वभाव का ज्ञान, स्वाभाविक ज्ञान । स्वाभाविक ज्ञान का अभाव जीव को कभी नहीं हो सकता। स्वभाव का ज्ञान सभी जीवों को सदैव ज्यों का त्यों रहता है, केवल उस पर आवरण आता है ।
ज्ञान और दर्शन- ये दोनों जीव के मुख्य लक्षण हैं, जीव के स्वभाव हैं । स्वभाव का नाश कभी नहीं होता। यदि स्वभाव का नाश हो जाय, तो वस्तु का अभाव हो जाय अर्थात् ज्ञान और दर्शन गुण के अभाव में जीव जीव न रहकर अजीव हो जायेगा । इसलिये जीव में ज्ञान व दर्शन गुण सदैव ज्यों के त्यों रहते हैं । इन पर न्यूनाधिक आवरण आने से इनकी प्रभा या प्रभाव न्यूनाधिक होता रहता है ।
ज्ञान पर आवरण होता है- मोह रूप बादल के कारण। अतः जितना-जितना मोह घनीभूत होता जाता है, उतना - उतना ज्ञान को ढकने वाला आवरण भी घनीभूत होता जाता है। जितना मोह घटता जाता है, उतना ज्ञान का आवरण घटता जाता है । यही कारण है कि जीव साधना करते समय जितना मोह का उपशम व क्षय करता है, उतना ही गुणस्थान
ज्ञानावरण कर्म
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