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आमुख
तत्त्वचिन्तक, ध्यान-साधक, विद्वद्वर्य एवं गुरुवर्य श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने जैनधर्म-दर्शन में प्रतिपादित जीवादि नवतत्त्वों का नूतन विवेचन किया है। इन नव तत्त्वों पर उनकी क्रमशः 1. जीव-अजीव तत्त्व 2. पुण्य-पाप तत्त्व, 3. आस्रव - संवर तत्त्व एवं 4. निर्जरा तत्त्व पुस्तकें पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। उसी शृंखला में यह 'बंध- तत्त्व' पुस्तक प्रकाशित हो रही है।
'बंध-तत्त्व' पर लिखित यह पुस्तक अनूठी एवं क्रान्तिकारी है । इसमें मात्र बंध तत्त्व का ही नहीं अपितु कर्म - सिद्धान्त विषयक अनेक अवधारणाओं का आलोडन एवं समीक्षण हुआ है। पूज्य लोढ़ा साहब का कर्म विषयक मौलिक चिन्तन इस कृति का प्राण है । पुस्तक में आठ कर्मों एवं उनकी उत्तर प्रकृतियों का गूढार्थ प्रस्तुत करने का स्तुत्य उपक्रम किया गया है । पूज्य लोढ़ा सा. ने जैन कर्म - सिद्धान्त में प्रचलित अनेक भ्रान्त रणाओं एवं विसंगतियों का निराकरण कर ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों एवं कर्मसिद्धान्त विषयक अनेक अवधारणाओं का नूतन विवेचन किया है।
सर्वप्रथम हम ज्ञानावरण कर्म को ही लें। ज्ञानावरण कर्म जो जीव के ज्ञान को आवरित करता है, उसका सीधा सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है । जितना मोहकर्म प्रगाढ होता है, उतना ही ज्ञानावरण कर्म प्रबल होता है। जितना मोह घटता है उतना ही ज्ञानावरण कर्म का प्रभाव क्षीण होता जाता है एवं ज्ञान गुण प्रकट होता जाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान गुण के घटने-बढ़ने का सम्बन्ध मोह के घटने-बढ़ने से है। मोह के कारण ज्ञानावरण में तरतमता होती है तथा ज्ञानावरण के कारण ज्ञान का प्रकटीकरण प्रभावित होता है। ज्ञान होना जीव का लक्षण है । जीव कुछ न कुछ अवश्य जानता है। अजीव जानने का साधन तो बन सकता है, किन्तु वह ज्ञाता नहीं बनता । उदाहरण के लिए हम नेत्र पर चश्मा लगाते हैं, तो वह उपकरण का कार्य करता है, किन्तु वह ज्ञाता नहीं होता ।
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