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है। इस गुण पर आवरण आना चक्षुदर्शनावरण है। शरीर, जिह्वा, नासिका एवं श्रोत्र इन्द्रियों की संवेदनशीलता अचक्षुदर्शन है तथा इनके इस गुण पर आवरण आना अचक्षुदर्शनावरणादि हैं तथा पाँच निद्राओं की भी इसमें गणना होती है। पाँच निद्राएँ हैं- 1. निद्रा 2. निद्रा-निद्रा 3. प्रचला 4. प्रचला–प्रचला एवं 5. स्त्यानगृद्धि । जो आत्मस्वरूप को, चैतन्यगुण को प्रकट न होने दे वह निद्रा है। ये पाँचों निद्राएँ यही कार्य करती हैं। स्वरूप की दृष्टि से इनके भिन्न लक्षण प्राप्त होते हैं। लोढ़ा साहब ने भी इनके प्रायः वे ही प्रचलित लक्षण दिए हैं, यथा- खेद, परिश्रम आदि से उत्पन्न थकावट के कारण आने वाली निद्रा, जिसमें सुगमता से जाग्रत हुआ जा सके वह निद्रा है। निद्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि होना, निद्रा का प्रगाढ़ होना, कठिनाई से जाग्रत होना निद्रा-निद्रा है। चलायमान अवस्था में निद्रा आना प्रचला है, प्रचला की पुनः पुनः आवृत्ति होना प्रचला–प्रचला है। सुप्त अवस्था में चलना-फिरना या अन्य कार्य करना स्त्यानगृद्धि है।
दर्शनावरण कर्म का भी मोहनीय कर्म से प्रगाढ सम्बन्ध है। मोह कर्म के कारण दर्शन शक्ति आच्छादित होती है। मोहकर्म मूर्छा का द्योतक है और मूर्छा जड़ता की द्योतक है। अतः जितना मोह बढ़ता है, उतनी ही म. की वृद्धि होती है। जितनी मुर्छा बढ़ती है, उतनी ही जड़ता बढ़ती है, जितनी जड़ता बढ़ती है उतना ही चेतन का चेतनतारूप दर्शन गुण आवरित होता है।
मोह के घटने एवं समता के बढ़ने से दर्शन गुण का प्रकटीकरण होता है। जैसे-जैसे दर्शन गुण का विकास या प्रकटीकरण होता जाता है, वैसे-वैसे स्व-संवेदन की स्पष्टता एवं सूक्ष्मता प्रकट होती जाती है, चेतना का विकास होता जाता है। दर्शन के विकास के साथ ज्ञान का विकास होता है। निर्विकल्पक चित्त की अवस्था में ही विचार या विवेक का उदय होता है। दर्शन गुण की प्रथम विशेषता संवेदनशीलता है तथा दूसरी विशेषता निर्विकल्पता है।
निर्विकल्प स्वरूप दर्शनगण का विकास सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में तथा दर्शनमोह के क्षय में हेतु है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में हेतु होता है। दर्शनगुण के विकास में निर्विकल्पता के कारण समता की पुष्टि होती है और वह समता दर्शनावरण एवं दर्शनमोह में कमी लाती है। आमुख
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