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हैं। उनका सम्बन्ध हमारे व्यक्तित्व से है। बाह्य संयोगों या बाह्य निमित्तों की उपलब्धि या अनुपलब्धि से नहीं है। इसका एक अर्थ यह भी है कि बाह्य परिवेश या पर्यावरण का अनुकूल या प्रतिकूल रूप में मिलना कर्म जन्य नही है। वह मात्र संयोगजन्य है। उनका कारण यदृच्छा/भवितव्यता/नियति है। जैन परम्परा में पंचकारण समवाय में काल, स्वभाव, नियति आदि भी स्वीकृत हैं अतः अनुकूल या प्रतिकूल संयोग के लिए पूर्वबद्ध कर्मो का उदय मानना उचित नहीं है। यहाँ तक आदरणीय लोढ़ा जी की मान्यता से मेरी पूर्ण सहमति है। जैन परम्परा में आठ कर्मो और विशेष रूप से घाती कर्मो में अंतराय कर्म भी माना गया है। इस अंतराय कर्म की पांच अवान्तर प्रकृतियाँ है :- 1. दानान्तराय, 2. लाभान्तराय, 3. भोगान्तराय, 4. उपभोगान्तराय और 5. वीर्यान्तराय (पुरुषार्थ शक्ति के प्रकटन में बाधा)। यहाँ 'अन्तराय' शब्द बाधा या बाधकतत्त्व की उपस्थिति का सूचक है। सामान्यतया बाधा या बाधकतत्त्व की उपस्थिति को बाह्य माना जाता है और ऐसा मानने पर यह लगता है कि कर्म का सम्बन्ध बाह्य निमित्तों की उपलब्धि या अनुपलब्धि से भी है। यदि प्रतिकूल निमित्तों का मिलना अन्तराय है तो फिर कर्म का सम्बन्ध बाह्य या पर से मानना होगा। इस समस्या का समाधान इस पुस्तक में निहित अन्तराय कर्म के विवेचन से प्राप्त हो जाता है। लोढ़ा सा. ने अन्तराय कर्म का निरूपण करते हुए उसे नूतन अर्थ दिए हैं तथा दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य को क्रमशः उदारता का भाव, कामना का अभाव, आन्तरिक सौन्दर्य, माधुर्य एवं सामर्थ्य कहा है, जो आन्तरिक गुण हैं, उपलब्धियाँ हैं। लोढ़ा सा. ने अन्तराय कर्म के भेदों का विवेचन युक्तिसंगत एवं मर्मोदघाटक रीति से किया है, जिसमें वर्तमान में प्रचलित अर्थों से उत्पन्न समस्याओं का निराकरण स्वतः हो जाता है।
आदरणीय लोढ़ा सा. का यह मन्तव्य है कि कर्म का बन्ध और सत्ता वहीं है जहाँ आत्म-प्रदेश हैं, अतः उनका उदय भी वहीं होगा, जहाँ आत्म-प्रदेश हैं और आत्म-प्रदेश मात्र शरीर में ही पाये जाते हैं। अतः लाभान्तराय आदि का सम्बन्ध भी 'स्व' से ही है। लाभान्तराय के क्षय का भी यह अर्थ नहीं है कि हमें बाह्य वस्तुओं अर्थात् धन सम्पति की प्राप्ति हो। उनका कथन है कि गरीबी–अमीरी का कर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस
भूमिका
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