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ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हेतु ज्ञान का अनादर नहीं ज्ञान का अनाचरण है आदरणीय लोढ़ा जी ने ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन के हेतु की समीक्षा करते हुए एक महत्वपूर्ण बात कही है। सामान्यतया यह माना जाता है कि, ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन का हेतु ज्ञान का 'अनादर' करना है । अनादर का सामान्य तात्पर्य उपेक्षा करना भी है, किन्तु लोढ़ा जी ने यहाँ एक महत्वपूर्ण बात कही है वह यह कि प्राचीन परम्परा में 'आदर' शब्द आचरण के अर्थ में आया है। प्राचीन मरुगुर्जर भाषा में भी आदर शब्द का अर्थ आचरण देखा जा सकता है, जैसे " जाण्यापिण आदरिया नहीं” इसका तात्पर्य यह है कि वस्तुतः ज्ञानावरणीय कर्म के बंध का हेतु सत्य को सत्य समझते हुए भी उसे जीवन में आचरित नहीं करना है। इसके समर्थन में एक युक्ति यह भी दी जा सकती है पंचाचारों में एक
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ज्ञानाचार भी है, अतः ज्ञान जानना नहीं, उसे आचरण में उतारना है । वस्तुतः इस कथन से एक संकेत निकलता है कि, वह ज्ञान जो आचरण में प्रतिफलित नहीं होता है वह अज्ञान रूप ही है, विष को जीवन घातक जानकर भी जो उसे खाता है, वह अज्ञानी है। वस्तुतः ज्ञान कोई व्यक्ति या वस्तु नहीं है जिसका आदर या अनादर होता है। ज्ञान एक गुण है और किसी भी गुण का आदर करने का तात्पर्य है उसे जीवन में उतारना । सामान्यतया ज्ञान के अनादर का अर्थ ज्ञान के साधनों का अनादर या उपेक्षा माना जाता है, लेकिन यह अर्थ परवर्ती ही है, क्योंकि भगवान महावीर के काल में ज्ञानार्जन हेतु ज्ञान के साधनों की अर्थात् पुस्तक, कलम आदि की आवश्यकता नहीं मानी जाती थी, मात्र गुण ही पर्याप्त था । ज्ञान की जड़ - सामग्री का अनादर करने से भी ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होगा और उनका आदर करने से ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट हो जाएगा, यह मानना भी उचित नहीं है। वस्तुतः आदर का अर्थ उसका समीचीन उपयोग होना चाहिए । यदि कोई व्यक्ति पाक-शास्त्र की किसी पुस्तक की पूजा करे, उसे प्रणाम करे तो उससे न तो भोजन बनने वाला है और न ही भूख मिटने वाली है, अतः आदर का तात्पर्य वस्तुतः उसे जीवन में जीना है। ज्ञान मात्र जानना नहीं, अपितु जानकर जीना है। जो ज्ञान जीया नहीं जाएगा उस ज्ञान का वस्तुतः कोई लाभ नहीं । जैन परम्परा की यह विशेषता है कि वह ज्ञानाचार की बात करती है। उसके अनुसार ज्ञान मात्र
भूमिका
LIV
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