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तकनीकी जानकारी नहीं, अपितु उसके उपयोग की दृष्टि ही किसी ज्ञान को सम्यक् या मिथ्या बनाती है। जैन कर्मसिद्वान्त की यह मान्यता है कि चाहे व्यक्ति का ज्ञानावरणीय कर्म का बंध कितना ही प्रगाढ़ हो, किन्तु जैसे ही दसवें गुणस्थान के अंत में सूक्ष्मलोभ अर्थात् रागभाव समाप्त होता है तो वह उस ज्ञानावरणीय कर्म के प्रगाढ़ बंध को भी अंतर्महूर्त में ही समाप्त कर देता है। अतः ज्ञान का सम्यक् या मिथ्या होना वस्तुत्व की यथार्थ जानकारी पर निर्भर न होकर व्यक्ति के मोह के अभाव पर निर्भर करता है। बंधन की प्रक्रिया के सम्बन्ध में इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि बंधन का मूल हेतु तो मोह और तज्जनित राग भाव या ममत्व की वृत्ति ही है। ममत्व, तृष्णा और आसक्ति का प्रहाण ही मुक्ति का मार्ग है, जो सम्यग्दृष्टि के विकास से सम्भव है। किन्तु यह सम्यग्दृष्टि का विकास भी राग भाव या ममत्व की वृत्ति के प्रहाण से ही सम्भव है। ममत्व का प्रहाण तब होता है जब हमें स्व (अपने) और पर (पराये) की समझ आती है। संक्षेप में राग ही बन्धन है और वीतरागता ही मुक्ति का मार्ग है। श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में एक नवीन चिन्तन :
प्रस्तुत कृति में श्रुतज्ञान का अर्थ भी परम्परागत मान्यता से भिन्नरूप में किया गया है, परम्परागत दृष्टि से श्रुतज्ञान आगमज्ञान या भाषिकज्ञान है। किन्तु श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा का कथन इससे भिन्न है। आध्यात्मिकदृष्टि से मतिज्ञान परवस्तु का ज्ञान या पदार्थ-ज्ञान है, क्योंकि वह इन्द्रियाधीन है, उसके विषय वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि हैं, पुनः मन की अपेक्षा से भी वह बौद्धिकज्ञान है, विचारजन्य है अतः भेदरूप है। किन्तु श्रुतज्ञान को इन्द्रिय या बुद्धि की अपेक्षा नहीं है, वह शाश्वत सत्यों का बोध है। वे लिखते हैं कि श्रुतज्ञान इन्द्रिय, मन, बुद्धि की अपेक्षा से रहित स्वतः होने वाला निज का ज्ञान है अर्थात् स्व स्वभाव का ज्ञान है। श्रुतज्ञान स्वाध्याय रूप है और स्वाध्याय का एक अर्थ है स्व का अध्ययन या स्वानुभूति। यदि श्रुतज्ञान का अर्थ आगम या शास्त्रज्ञान लें, तो भी वह हेय, ज्ञेय या उपादेय का बोध है। इस प्रकार वह विवेक ज्ञान है। विवेक अन्तःस्फूर्त है। वह उचित-अनुचित का सहज बोध है। निष्कर्ष यह है कि मतिज्ञान पराधीन है जबकि श्रुतज्ञान स्वाधीन है। इस प्रकार आदरणीय लोढ़ा जी ने आगमिक आधारों को मान्य करके भी एक नवीन दृष्टि से व्याख्या की है।
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भूमिका