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पदार्थों का सूचनात्मक ज्ञान नहीं है। उसकी दृष्टि में ज्ञान सूचना नहीं, ज्ञानाचार है वह सम्यक् जीवन शैली का परिचायक है। आत्मज्ञानी ही वस्तुतः ज्ञानी है।
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ज्ञान के सम्बन्ध में यहीं यह समझना आवश्यक है कि ज्ञान पर आवरण होना एक बात है और ज्ञान का विद्रूप होना दूसरी बात है । ज्ञान के विद्रूप या मिथ्या होने का कारण मोह है। सूचनात्मक ज्ञान चाहे कितना ही अधिक हो जाए; जब तक व्यक्ति की समझ सम्यक् नहीं होती है, तब तक वह विस्तृत ज्ञान भी मिथ्याज्ञान ही रहता है। सम्यक् समझ का मतलब है हेय और उपादेय का ज्ञान । सम्यक् समझ का मतलब है आत्म और अनात्म का विवेक । बंधन से विमुक्ति के लिए सम्यक् समझ का विकास आवश्यक है न कि सूचनात्मक व्यापक ज्ञान । यदि सम्यक् समझ का विकास नहीं होता है तो विपुल सूचनात्मक ज्ञान भी कर्म - बंधन का ही निमित्त बनता है। ज्ञान को मुक्ति में सहायक माना गया है, किन्तु जैन दर्शन में ज्ञान से तात्पर्य सम्यग्ज्ञान से है ।
इस संदर्भ में एक बात और समझ लेनी है कि जब तक सम्यग्दृष्टि का विकास नहीं होता है तब तक विशाल ज्ञान राशि भी मिथ्याज्ञान ही मानी जाती है। एक वैज्ञानिक भी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है, किन्तु उसका ज्ञान तब तक सम्यक् नहीं माना जाता है, जब तक उसका दृष्टिकोण सम्यक् न हो। ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन का हेतु मोहनीय कर्म को ही माना गया है। मोहनीय कर्म के उदय तक ही ज्ञानावरणीय कर्म का उदय रहता हैं। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण मिथ्या अर्थात् भोगवादी हैं, तो उसके द्वारा जो कुछ भी मतिज्ञान यां श्रुतज्ञान के माध्यम से जाना जायेगा, वह उसके जीवन में ममता, कामना और राग-द्वेष को पैदा करेगा और इसलिए उसे बाह्यार्थ अर्थात् वस्तु जगत का यथार्थ ज्ञान होते हुए भी .उसका वह ज्ञान अज्ञान या मिथ्याज्ञान की कोटि में ही माना जाएगा। इसलिए हमें यह समझ लेना चाहिए कि जैन दर्शन में ज्ञान के सम्यक् होने का तात्पर्य वस्तु की जानकारी नहीं है, अपितु वह दृष्टिकोण है जिसके आधार पर उसको देखा या जाना जाता है । अनेक आर्ष-शास्त्रों की जानकारी एक सम्यग्दृष्टि और एक मिथ्यादृष्टि दोनों को समान रूप से होती है। किन्तु उस जानकारी को जैनदर्शन सम्यग्ज्ञान नहीं मानता है।
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भूमिका