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जानने की वस्तु नहीं है, वह जीने की वस्तु है । यदि एक व्यक्ति विष के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी रखते हुए भी उसका भक्षण करता है तो वह ज्ञानी नहीं माना जाएगा । तैरने के सम्बन्ध में पी-एच.डी करने वाला भी यदि तैरना नहीं जानता है तो वह डूबेगा ही। उसी प्रकार जो ज्ञान जीया नहीं जाता है वह ज्ञान वस्तुतः अज्ञान रूप या बंध रूप ही होता है। इस प्रस्तुत कृति में ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन और प्रहाण के सम्बन्ध में लोढ़ा जो दृष्टि प्रस्तुत की है, वह विचारणीय है । किन्तु ज्ञान के साधनों का अनादर ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हेतु है, यह बात भी एकान्त मिथ्या नहीं है, यह भी आगम सम्मत है, क्योंकि गुरु भी ज्ञान का साधन है और उसके प्रति अविनय या अनादर भाव ज्ञान - प्राप्ति में बाधक होगा अतः उससे भी ज्ञानावरणीय का बंध होगा ।
पराघात एवं उपघात के नवीन अर्थ
इसी क्रम में आदरणीय लोढ़ाजी ने नामकर्म की 'पराघात' नामक प्रकृति का भी एक नवीन अर्थ किया है, जो उनकी समीचीन दृष्टि का परिचायक है। नामकर्म की प्रकृतियों में एक प्रकृति का नाम पराघात है। सामान्यतया नामकर्म की पराघात नामक इस प्रकृति का अर्थ यह किया जाता है कि जो दूसरे को निष्प्रभ कर दे या जिससे व्यक्ति अजेय बना रहे वह पराघात है। आदरणीय लोढ़ाजी ने पराघात के इस अर्थ को उपयुक्त न मान कर एक नवीन अर्थ दिया है। नामकर्म की यह प्रकृति पुद्गल विपाकी है, इसका सम्बन्ध शरीर से है अतः लोढ़ाजी की दृष्टि में इसका अर्थ है कि शरीर की वह शक्ति जो शरीर में आने वाले दूषित पदार्थों, दूषित वायु संक्रामक कीटाणु आदि से लड़कर उन्हें पराजित कर देती है। वस्तुतः पराघात प्रकृति हमारे शरीर में आये विजातीय तत्त्वों पर विजय प्राप्त करती है और इस प्रकार हमें स्वस्थ रखती है। इसी प्रकार उन्होंने उपघात नामक नामकर्म की प्रकृति का अर्थ भी भिन्न किया है, यथा- जो शरीर में विजातीय पदार्थों की उत्पति कर शरीर में हानि पहुँचाती है वह उपघात नामक नामकर्म की प्रकृति है । इस प्रकार आदरणीय लोढ़ा जी ने परम्परागत मान्यताओं को एक नवीन अर्थ देने का प्रयास किया है। उनकी बन्ध तत्त्व सम्बन्धी यह कृति मात्र परम्परागत मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण नहीं है, अपितु उनकी एक नवीन दृष्टि से समीक्षा भी है ।
भूमिका
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