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क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रख पाने में असमर्थ रहता है तब तक अविरति का उदय रहता है । अविरति का तात्पर्य है हिंसा 1 आदि पंच पापों से निवृत्त नहीं होना । इन पंच पापों से निवृत्ति तभी संभव है, जब हम अपनी क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृतियों पर नियंत्रण करने में सफल होते हैं। व्यवहार में भी हम यह देखते हैं कि जो व्यक्ति अपने क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेगों पर नियंत्रण नहीं रख पाता है वह अपने जीवन - व्यवहार में हिंसा, अप्रामाणिकता आदि का सहारा लेता है। इस प्रकार अविरति और कषायों के नियंत्रण की क्षमता का अभाव-दोनों सहवर्ती हैं। दूसरे शब्दों में मिथ्यात्व और अविरति के मूल में कहीं न कहीं कषायों का सम्बन्ध रहा हुआ है। जहाँ तक बंधन के तीसरे कारण प्रमाद का प्रश्न है वह तो स्वयं कषाय का ही एक रूप है। प्रमाद का सामान्य अर्थ आत्म सजगता का अभाव है। जब तक क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेग तीव्र रूप में होते हैं, तब तक हमारा विवेक प्रसुप्त रहता है और जब तक विवेक सजग नहीं होता है तब तक कषायों से मुक्ति भी संभव नहीं है। चेतना की पूर्ण सजगता में ही कषायों अर्थात् क्रोध मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों के उदय का अभाव होता है। जैन परम्परा की मान्यता यह है कि जहाँ कषाय है वहाँ प्रमाद है । पुनः सूत्रकृतांग में प्रमाद को ही कर्म अर्थात् बंधन कहा गया है । अप्रमत्तता की स्थिति में कर्म अकर्म हो जाता है अर्थात् अबंधक हो जाता है।
इस प्रकार बंधन के पाँच हेतुओं में मूल हेतु तो कषाय ही है। यदि बंधन से मुक्त होना है तो कषायों से मुक्त होना होगा। जैन परम्परा की यह स्पष्ट मान्यता है कि कर्म बंध तभी तक सम्भव है जब तक कषायों की सत्ता रही हुई है। व्यक्त या अव्यक्त रूप हुए क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय ही बंधन के हेतु हैं । बन्धन की तीव्रता और मंदता कषाय की तीव्रता या मंदता पर निर्भर करती है। इसी प्रकार पुण्य और पाप का बन्धन भी क्रमशः कषाय की अल्पता या तीव्रता पर निर्भर करता है।.
यद्यपि बन्धन के एक हेतु के रूप में जैन परम्परा में योग अर्थात् मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ भी मानी गई हैं, किन्तु वे वास्तविक रूप में बन्धन की हेतु नहीं हैं, अपितु आस्रव की हेतु हैं और समान्यतया आस्रव ही बंध हेतु होता है। इसलिए योग को उपचार से बन्ध भूमिका
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