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T हेतु कहा गया है। किन्तु कषाय के अभाव में मात्र योग से स्थितिबन्ध नहीं होता है। स्थितिबन्ध के अभाव में योगजन्य कर्मप्रदेश आत्मप्रदेशों का स्पर्श कर निर्जरित हो जाते हैं। अत: योग को मात्र आस्रव हेतु ही मानना चाहिए, बन्ध हेतु नहीं। वह उपचार से ही बन्ध हेतु कहा जाता है। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग कहा गया है, वे दो प्रकार की हैं- 1. ईर्यापथिक और 2. साम्परायिक । इनमें मन, वचन और काया की कषाय रहित मात्र ईर्यापथिक प्रवृत्तियों में वास्तविक रूप में बंध नहीं होता है। क्योंकि इनमें कषायों का अभाव होता है। कषाय युक्त मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही साम्परायिक कही जाती हैं, ये ही वस्तुतः बन्ध-हेतु हैं। कषाय रहित मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों से जो ईर्यापथिक बंध होता है वह मात्र एक समय का होता है। उसकी स्थिति नहीं होती है, अतः उसका होना नहीं होने के समान ही है।
__जैन परम्परा में जो चार प्रकार का बंध माना गया है, वह प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप है। इनमें प्रकृति बंध और प्रदेश बंध का हेतु तो योग होता है और स्थिति बंध और अनुभाग बंध का हेतु कषाय होते हैं। कषाय के अभाव में कर्मों का स्थिति बन्ध सम्भव नहीं है अतः यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो बन्ध का हेतु कषाय ही है। जैन कर्मसिद्धान्त की स्पष्ट मान्यता है कि दसवें गुणस्थान तक संज्वलन लोभ कषाय का उदय है, तभी तक कर्म प्रकृतियों का स्थिति बंध संभव है। कषाय के उदय के अभाव में ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें इन तीनों गुणस्थानों में योगजन्य मात्र एक समय की स्थिति वाला सातावेदनीय का बंध माना गया है। वह उपचार से ही बंध कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि बंधन का हेतु कषाय है, जो मोहनीय कर्म की प्रकृति है। इसलिए जब तक मोहनीय कर्म का क्षय नहीं होता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं है।
जैन धर्म में कर्म आठ प्रकार के माने गए हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय । इन आठ कर्मों में सात कर्मों का बंध नियम से कषाय के सभाव में होता है वेदनीय कर्म में भी मात्र सातावेदनीय कर्म ही ऐसा है, जिसका एक समय का ईर्यापथिक बंध कषाय के अभाव में मात्र योगप्रवृत्ति से होता है। किन्तु भूमिका
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