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कर्म सिद्धान्त : जीवन शास्त्र
आशय यह है कि जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त प्राकृतिक विधान के आधार पर स्थित है। पूर्ण मनोवैज्ञानिक, परा मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक है। इसे जानकर नवीन कर्म बंध को रोका जा सकता है, पुराने बंधे हुए पाप कर्मों को पुण्य में बदला जा सकता है अथवा उनका नाश भी किया जा सकता है और सदा के लिए शरीर और संसार से अतीत होकर देहातीत- लोकातीत, अजर, अमर अविनाशी, अक्षय व अनंत सुखमय जीवन का अनुभव किया जा सकता है।
जैन दर्शन का कर्म-सिद्धान्त जीवन विज्ञान है। जीवन-विज्ञान होने से इसमें जीवन से संबंधित समस्त स्थितियों का अर्थात् जीवन का सर्वांगीण विवेचन है। जीव का जन्म क्यों, कैसे व कहाँ होता है? जन्म लेने के पश्चात् तन, मन, वचन व चेतन तथा इनसे संबंधित व्यापारों की उत्पत्ति, उसका कारण तथा निवारण आदि समस्त विषयों पर विशद प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः कर्म- सिद्धान्त जीवन-शास्त्र है, जिसमें राग-द्वेष आदि बंधनों, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, पराधीनता, अभाव, तनाव, दबाव आदि दुःखों से मुक्ति-प्राप्ति का अत्यन्त सरल, सहज, सुगम मार्ग भी बताया है, जिसे अपना कर मानव मात्र सदा के लिए इन दुःखों से मुक्त होकर शरीर और संसार से अतीत के अविनाशी, अजर, अमर, जीवन एवं अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुख का स्वामी हो सकता है।
इस कृति में मैने जो विवेचन किया है, वह जैनागम एवं कर्म-सिद्धान्त के ग्रन्थों में प्रतिपादित तथ्यों के अनुसार है। मैंने लेखन में तटस्थ एवं संतुलित दृष्टिकोण अपनाने का एवं भाषा में संयत रहने का प्रयास किया है। तथापि मैंने क्षयोपशमिक ज्ञान में कमी या भूल होना संभव है। अतः मैं उन सभी आगमज्ञ विद्वानों, तत्त्वचिंतकों एवं विचारकों के सुझावों, समीक्षाओं, समालोचनाओं एवं मार्ग-दर्षन का आभारी रहूँगा, जो प्रस्तुत कृति का तटस्थ भाव से अध्ययन कर अपने मन्तव्य से मुझे अवगत करायेंगे।
__मेरे जीवन निर्माण में तथा आध्यात्मिक एवं तात्त्विक रुचि जाग्रत करने में आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. की महती कृपा रही है। आज
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प्राक्कथन