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योग्यता आती है, उदारता जागृत होती है, फिर दूसरों को सुख देने के लिए भी अपने सुख व सुख सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाने की प्रवृत्ति होती है। दूसरों की निःस्वार्थ सेवा से जो प्रेम का रस आता है, उसका आनन्द सुख भोगजनित सुख से निराला होता है। उस सुख में वे दोष या कमियाँ नहीं होतीं, जो भोग जनित सुख में होती हैं। प्रेम के सुख का यह बीज उदारता में पल्लवित, पुष्पित तथा फलित होता है और अन्त में सर्वहितकारी प्रवृत्ति का रूप ले लेता है।
जिस प्रकार कर्म-सिद्धान्त में संक्रमण केवल सजातीय प्रकृतियों में संभव है, इसी प्रकार मनोविज्ञान में भी रूपान्तरण केवल सजातीय प्रकृतियों में ही संभव माना है। दोनों ही विजातीय प्रकृतियों के साथ संक्रमणे या रूपान्तरण नहीं मानते हैं। संक्रमण करण और रूपान्तर करण दोनों ही में यह सैद्धान्तिक समानता आश्चर्यजनक है।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार पाप प्रवृत्तियों से होने वाले दुःख, वेदना, अशान्ति आदि से छुटकारा, परोपकार रूप पुण्य प्रवृत्तियों से किया जा सकता है। इसी सिद्धान्त का अनुसरण वर्तमान मनोविज्ञानवेत्ता भी कर रहे हैं। उनका कथन है कि उदात्तीकरण शारीरिक एवं मानसिक रोगों के उपचार में बड़ा कारगर उपाय है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सालयों में असाध्य प्रतीत होने वाले महारोग उदात्तीकरण से ठीक होते देखे जा सकते हैं।
जिस प्रकार अशुभ प्रवृत्तियों का शुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तरण होना जीवन के लिए उपयोगी व सुखद होता है, इसी प्रकार शुभ प्रवृत्तियों का अशुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तरण व संक्रमण होना जीवन के लिए अनिष्टकारी व दुःखद होता है। सज्जन भद्र व्यक्ति जब कुसंगति, कुत्सित वातावरण में पड़ जाते हैं और उससे प्रभावित हो जाते हैं, तो उनकी शुभ प्रवृत्तियाँ अशुभ प्रवृत्तियों में परिवर्तित हो जाती हैं जिससे उनका मानसिक एवं नैतिक पतन हो जाता है। परिणामस्वरूप उनको कष्ट, रोग, अशान्ति, रिक्तता, हीन भावना, निराशा, अनिद्रा आदि अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं।
कर्मशास्त्र के अनुसार संक्रमण पहले बंधी हुई प्रकृतियों का वर्तमान में बध्यमान (बंधने वाली ) प्रकृतियों में होता है। अर्थात् पहले प्रवृत्ति करने
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प्राक्कथन