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मार्गशिर, वीरनि सं०२४५६]
स्वास्थ्यरक्षाके भूलमन्त्र
'मक स्वास्थ्यरक्षाके मूलमन्त्र
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[ले०- श्रीमान राजवैद्य पं० शीतलप्रसादजी]
इस संसारमें हमारे अनेकों प्रधान कार्यों मेंसे प्रमुख विद्या, एवं राजाको राज्य भी प्यारा नहीं लगता,कर्तव्य अपने स्वास्थ्यकी रक्षा करना है। मेरी कामना यहाँ तक कि, प्यारे पुत्र-कलत्र, दास, दासी, घर, दूहै कि 'सर्व संसार नीरांग रहे।
कान, सब कुछ दुःखके ही हेतु प्रतीत होते हैं । और संसारका प्रत्येक कार्य चाहं वह सामाजिक,धार्मिक, इसलिये कहना पड़ता है कि संसारमें स्वास्थ्य (श्राराजनैतिक एवं पारमार्थिक तथा आर्थिक दृष्टिस किमी रोग्य ) के समान दूसग पदार्थ नहीं है। भी अवस्थाका हो-उच्च तथा अधम किसी भी श्रेणी में प्रायः देखा जाता है कि वर्तमान भारतीय-परिविभाजित किया गया हो-उसके निभान, परा करने स्थितिमें शिक्षित अशिक्षित सभी समान रूपसे स्वातथा सुचारु-उपभोग करनेके लिये शरीरका आगेग्य- म्योन्नति के सम्बन्धमें उदासीन हैं, सर्व-साधारण स्वस्थ रहना-नितान्त आवश्यक है ।
तो क्या, एक प्रतिशत व्यक्ति भी स्वास्थ्यकी बातोंको यदि हमारी शरीरप्रकृति, अच्छी नहीं है तो जान- नहीं जानते । इसका कारण है हमारे छात्रोंकी पढाईके लीजिए हम संसारमें किसी भी योग्य नहीं हैं। औरोंका कार्समें स्वास्थ्य सम्बन्धी पम्तकोंका न होना अथवा उपकार तो क्या, हम म्वयं अपना लघतम-कार्य करन उनका यह न सिग्वाया जाना कि किस आहार विहार में भी असमर्थ हैं । स्वस्थ, मनुष्य अत्यन्त हीनावस्था तथा रहन सहन पर चलत हुए मनुष्य जीवन पर्यन्त होने पर भी सुखका अनभव कर सकता है, और जा म्वस्थ, बलिष्ठ और सुखी रह सकता है । बड़े बड़े रोगी है उसके मम्मुख चक्रवर्तीका ऐश्वर्य भी तुच्छाति उच्च शिक्षा प्राम बी०ए०, एम० ए० तथा न्यायतीथातुच्छ है-आनन्ददायक नहीं । बड़े बड़े महारथी दिक स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धमे उतने ही अनभिज्ञ हैं छत्रपति शिवा जैसे शूरवीर भी, जिनकी हुंकारसे जितनं कि अशिक्षित। पृथ्वी हिलजाती थी और जिनके सम्मुख बड़े बड़े इममें मंदेह नहीं कि हमाग व्यक्तिगत-जीवन, योद्धा धैर्य त्याग देते थे, जब व्याधि-व्यथासे पीडित कुछ तो शाम्रोंकी आज्ञा के अनुसार चलन, कुछ पड़ी होकर शय्या-शायी हो गए तब अबोध शिशुकी तरह हुई आदतके सबब, और कुछ दूसरोंका करते देखकर, रोते और बिलखते थे; बड़े बड़े विज्ञान-विशारद, जिन औरोंकी अपेक्षा बहुत कुछ साफ़ और शुद्ध हैं। इसका . के विज्ञान-चातुर्यसे अनेकों कार्य ऐसे हो रहे हैं जिन श्रेय हमारे पूर्वाचार्यों और अनेक धर्मउपदेशकोंको को देख कर लोग आश्चर्य चकित होते हैं, वे भी जब है , जिन्होंने आरोग्यताके नियमों को सर्वसाधरणक रोग-प्रस्त होते हैं तब मूखों के समान अधीर हो कर हितकं लिए धर्म के रूप में ही वर्णन कर दिया है, रोते देखे गये हैं।
जिससे कि जन-साधारण भी जिनकी बुद्धि उनके मूल रोगावस्थामें धनीको धन, बलीको बल, विद्वानको नत्त्व और उद्देश्यको नहीं पहुँचे, केवल धर्म-भयमे ही .