Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ जिस प्रकार प्रारम्भ में समग्रशास्त्र की अधिकारगाथाएँ दी गई है, उसी प्रकार कितने ही पदों के प्रारम्भ में विषय-संग्रहणी गाथाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं। जैसे 3, 18, 20, एवं 23 वें पद के प्रारम्भ और उपसंहार में गाथाएँ दी गई हैं, इसी प्रकार 10 वें पद के 18 अन्त में और ग्रन्थ के मध्य में, यथावश्यक गाथाएँ दी गई हैं। इसमें प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर कुल 231 गाथाएँ हैं और शेष गद्यपाठ है / प्रज्ञापनासूत्र में जो संग्रहणी गाथाएँ हैं, उनके रचयिता कौन हैं ? इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता / प्रस्तुत संपूर्ण प्रागम का श्लोकप्रमाण 7887 है / इसमें कहीं-कहीं सूत्रपाठ बहुत लम्बे-लम्बे हैं, कहीं अतिदेश युक्त अतिसंक्षिप्त हैं। कहींकहीं एक ही विषय की पुनरावृत्ति भी हुई है। प्रायः क्रमबद्ध संकलना है, परन्तु कहीं-कहीं व्युत्क्रम से भी संकलना की गई है। प्रज्ञापना के समग्र पदों का विषय जैन सिद्धान्त से सम्मत है। भगवतीसूत्र में जैसे कई उद्देशकों या प्रकरणों के प्रारम्भ में कहीं-कहीं अन्यतीथिकमत देकर तदनन्तर स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, वैसे प्रस्तुत प्रज्ञापनासूत्र में नहीं दिया गया है। इसमें सर्वत्र प्रायः प्रश्नोत्तरशैली में स्वसिद्धान्तविषयक प्रश्न एवं उत्तर अंकित किये गए हैं। प्राचार्यश्री मलयगिरि ने प्रज्ञापना में प्ररूपित विषयों का सम्बन्ध जीव, अजीव प्रादि सात तत्त्वों के निरूपण के साथ इस प्रकार संयोजित किया है१-२ जीव-अजीव = पद 1,3,5,10 और 13 में 3 पासव पद 16 और 22 में 4 बन्ध ___ = पद 23 मे 5-6-7 संवर, निर्जरा और मोक्ष - पद 36 में इन पदों के सिवाय शेष पदों में कहीं-कहीं किसी न किसी तत्त्व का निरूपण है। प्राचार्य मलयगिरि ने जैन दृष्टि से द्रव्य का समावेश प्रथम पद में, क्षेत्र का द्वितीय पद में, काल का चतुर्थ पद में और भाव का शेष पदों में समावेश किया है। इस ग्रन्थ में विषयों का निरूपण पहले लक्षण बना कर नहीं किया गया, अपितु विभाग-उपविभाग द्वारा बताया गया है। अत: यह ग्रन्थ विभाग-प्रधान है / लक्षणप्रधान नहीं / / प्रज्ञापना-उपांग आर्य श्यामाचार्य की संकलना है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें अंकित सभी बातें उन्होंने स्वयं विचार करके प्रस्तुत की हैं। उनका प्रयोजन तो श्रुतपरम्परा में से तथ्यों का संग्रह करना और उनको संकलना अमुक प्रकार से करना था। जैसे--प्रथम पद में जीव के जो भेद बताए हैं, उन्हीं भेदों को लेकर द्वितीय स्थान' आदि द्वारों को घटित करके प्रस्तुत नहीं किया बल्कि स्थान आदि द्वारों का जो विचार जिन विविध रूपों में पूर्वाचार्यों द्वारा उनके समक्ष विद्यमान था, उन्होंने उन-उन द्वारों एवं पदों में उन-उन विचारों का संग्रह एवं संकलन किया। इसलिए यह 18. पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 10-11 19. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1 पृ. 446 20. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक 5 21. पाणवणासुत्त भा. 2 प्रस्तावना पृ. 13 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org