Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रज्ञापना में भी जीव, अजीव आदि तत्त्वों से सम्बन्धित वर्णन है / अतः इसे समवायांग का उपांग मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है / प्रज्ञापनासूत्र के संकलयिता श्री श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना को दृष्टिवाद का निष्कर्ष 4 बताया है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि दृष्टिवाद के विस्तृत वर्णन में से सारभूत वर्णन प्रज्ञापना में लिया गया है। दृष्टिवाद आज हमारे सामने उपलब्ध नहीं है, किन्तु सम्भव है, दृष्टिवाद में दृष्टिदर्शन से सम्बन्धित वर्णन हो; तथापि इतना तो कहा जा सकता है कि प्रज्ञापना में वर्णित विषयवस्तु का ज्ञानप्रवाद, प्रात्मप्रवाद, कर्मप्रवाद आदि के साथ मेल खाता है / 5 षट्खण्डागम और प्रज्ञापना दोनों का विषय प्रायः मिलता जुलता है / षट्खण्डागम की धवलाटीका में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणीपूर्व के साथ जोड़ा गया है। अतः प्रज्ञापना का सम्बन्ध भी अग्रायणीपूर्व के साथ संगत हो सकता है / विषयवस्तु की गहनता एवं दुरुहता दृष्टिवाद एवं पूर्वो का विषय कितना गहन और दुरूह है, यह जैनागम के अभ्यासी विद्वान् जानते हैं। उन्हीं में से साररूप में उद्धृत करना अथवा भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वभावों की प्रज्ञापना के सदृश प्रज्ञापना करना कितना कठिन और दुरूह है, यह अनुमान लगाया जा सकता है / इस पर से प्रज्ञापनासूत्र की विषयवस्तु की गहनता एवं दुरूहता का स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है। यद्यपि प्रज्ञापनासूत्र की विषयबद्ध संकलना करने में और उसे छत्तीस पदों में विभक्त करने में श्री श्यामाचार्य ने बहत ही कुशलता का परिचय दिया है। तथापि कहीं-कहीं भंगजाल इतना जटिल है अथवा विषयवस्तु की प्ररूपणा इतनी गढ़ है कि पाठक जरा-सा अनवधान-युक्त रहा कि वह विषयवस्तु के तथ्य-~-सत्य से दूर चला जाएगा, और वस्तुतत्त्व को नहीं पकड़ सकेगा। प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में से कई पद बहुत ही विस्तृत हैं, और कई पद अत्यन्त संक्षिप्त हैं। ये छत्तीस पद एक प्रकार से छत्तीस प्रतिपाद्य विषय के प्रकरण हैं, जिनके लिए प्रत्येक प्रकरण के अन्त में पदशब्द का प्रयोग किया गया है / रचनाशैली प्रस्तुत सम्पूर्ण उपांगशास्त्र की रचना प्रश्नोत्तरशैली में हुई है। प्रारम्भ से 81 वें सूत्र तक प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता का कोई परिचय नहीं मिलता / इसके पश्चात् गणधर गौतम और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तररूप में वर्णन किया गया है। कहीं कहीं बीच-बीच में सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। 14. असायणमिणं चित्त सुपरयणं दिट्टिवायणीसंदं। -प्रज्ञापना, गा. 3 15. पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 9 16. षटखण्डागम 1, प्रस्तावना पृ.७२ 17. 'पदं प्रकरणमर्थाधिकारः' इति पर्याया:--प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र 6 [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org