Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ सू. १५ सम्यक्त्वपदनिरूपणम् अपि, असुरकुमारादि एव श्चैव यावत् स्तनितकुमाराः, पृथिवी कायिकाः खलु पृच्छा, गौतम ! पृथिवीकायिकाः नो सम्यग्दृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः, नो सम्पमिथवादृष्टः, एवं यावद् बनसतिकायिकाः, द्वीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम ! द्वोन्द्रियाः सम्यादृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः, नो सम्यमिथ्यादृष्टयः, एवं यावच्चतुरिन्द्रि प्रपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः मनुष्या वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाश्च सम्यादृष्टयोपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यमिथ्यादृष्टयोऽपि, सिद्धाः खलु पृच्छा, गौतम ! सिद्धाः सम्यग्दृष्टयो, नो मिथ्यादृष्टयः, नो सम्यमिथ्यादृष्टयः, प्रज्ञापनायां भगवत्यां सम्यक्त्वपदं समाप्तम् ।। सू० १॥ भगवन् ! जीव सम्यग्दृष्टि है, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग मिथ्यादृष्टि हैं ? (गोयमा!जीया सम्मदिही वि, मिच्छादिट्ठी चि, सम्मामिच्छादिट्ठी चि) हे गौतम ! जीव सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं, सम्पग्मियादृष्टि भी हैं (एवं नेरइंया वि) इसी प्रकार नारक भी (असुरकुपारा वि एवं चेय) अप्लुरकुमार आदि भी इसी प्रकार (जाव थणियकुमारा) यावतू स्तनितकुमार __(पुढविकाइया णं पुच्छ।) पृथ्वीकायिक विषयक-पृच्छा (गोयमा ! पुढवि. काइया णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी) हे गौतम ! पृथ्वीकायिक सम्यग्दृष्टि नहीं, मिथ्यादृष्टि हैं (णो सम्मामिच्छादिट्ठी) सम्पग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं हैं (एवं जाय वणस्सइकाइया) इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक ___ (बेइंदिया णं पुच्छा ?) द्वीन्द्रिय विषयक पृच्छा ? (गोयमा ! बेइंदिया सम्म दिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी) हे गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव सम्पदृष्टि, मिथ्यादृष्टि हैं, सम्पमिथ्यादिष्टि नहीं है (एवं जाव चउरिंदिया) इसी प्रकार यावत् चौहन्द्रिय (पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया य) पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, बानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक सट छ, भिथ्याट छ १२ सभ्यभिष्ट छ ? (गोयमा ! जीवा सम्मदिदी वि, मिच्छादिट्ठी वि, सम्ममिच्छादिद्वी वि) हे गौतम ! ७३ सयट ५४ छ, मिथ्याष्टि ५५ छ, सभ्य भयाट ५९] छ (एवं नेरइया वि) ना२४ ५९] (असुरकुमारादि एवं चेव) असु२४भा२ ॥ ५९५ मे (जाव थणियकुमारा) यावत् स्तनितमा२.
(पुढविकाइयाणं पुच्छा ?) पृथ्वीय विषे २७ ? (गोयमा ! पुढविकाइयाणो सम्मदीद्वि, मिच्छादिट्ठि) हे गौतम ! पृथ्वीय सभ्यष्टि नहीं, मिथ्याट छे (णो सम्ममिच्छादिदी) सभ्य भथ्याट ५ नथी (एवं जाव वणस्सइकाइया) मे ४ारे यावत् पनस्पतियx.
(बेइंदियाणे पुच्छा ?) दन्द्रिय विष-२छ। ? (गोयमा ! बेइंदिया सम्मदिवी, मिच्छादिद्वि, णा सम्ममिच्छादीढी) हे गौतम ! दीन्द्रिय सभ्यष्टि, अन भिष्टि छ, पण सम्भप्याट ना (एवं जाय चउरिदिया) ०४ प्रहारे या५त् यतुन्द्रिय (पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, वाणमंतरा, जोइसिय-वेमाणिया य) पयेन्द्रिय तिय"य, मनुष्य, पानव्यन्तर,
श्री प्रशानसूत्र:४