Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 772
________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २१ सू० ७ आहारकशरीर निरूपणम् ७५९ शरीरं भवति ? तत्र प्रमाद्यति स्म मोहनीयादि कर्मोदयप्रभावात् संज्वलनक पाय निन्द्राधन्यतमप्रमादयोगात् संयमयोगेषु सीदतिस्म इति व्युत्पत्या प्रमत्तपदेन प्रायोगच्छवासी व्यपदिश्यते तस्य क्वचिदनुपयोगसंभवात्, तदभिन्नाः - अप्रमत्तास्ते च प्रायोऽई स्कल्पिकपरिहारविशुद्धिक यथालब्धकल्पिक प्रतिमाप्रतिपन्नास्तेषां सर्वदोपयोगसम्भवात् भगवानाह - 'गोमा !' हे गौतम ! 'पमत्ससंजय सम्मद्दिट्टि पज्जतगसंखेज्जवासाउय कम्मभूमगगभववकंतिय मणूस आहारगसरीरे, नो अदमत्त संजय सम्मद्दिट्टि पज्जत्तगसंखेज्जनासाउय कम्मभूमग गम्भवक कंतिय मणूस आहारगसरीरे' प्रमत्तसयतसम्यग्टष्टिपर्याप्त संख्येयवर्षायुककर्मभूमिगगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याहारकशरीरं भवति, नो अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तकसंख्येयवायुष्कर्म भूमिगगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याहार कशरीरं भवति, गौतमः पृच्छति - 'जइ अपमत्त संजय सम्मद्दिद्विपज्जत गसंखेज्जनासाउ कम्मभूमगगन्भवक्कंतिय मणूस आहारगसरीरे किं इड्डित्तप्पमत्तलं खेज्जवासाउय कम्मभूमगगव्भववकंतिय मणूस आहारगसरी रे, अणि पित्तपत्त संजय सम्भदिट्टि पज्जत संखेज्जवासाज्य कम्मभूमगगन्भवककंतिय मणूसवर्ष की आयु वाले कर्मभूमि के गर्भज मनुष्य का आहारकशरीर होता है ? मोहनीय आदि कर्मों के उदय से संज्वलनकषाय, निद्रा आदि किसी भी प्रमाद के योग से जो प्रमाद को प्राप्त हो वह प्रयन्त कहलाता है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रायः गच्छवासी मुनि प्रमत्त कहा जाता है, क्योंकि उसमें कहीं कहीं उपयोगशून्यता का संभव है । जो प्रमाद से रहित हों वे अप्रमत्त कहलाते हैं। वे प्रायः अहं -कल्पिक, परिहारविशुद्धिक, यदालन्द कल्पिक तथा प्रतिमाधारी सम झने चाहिए, क्योंकि वे सदा उपयोग युक्त रहते हैं । भगवान् - हे गौतम! अप्रमत्श संगत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु बाले कर्मभूमि के गर्भज मनुष्य का आहारकशरीर होता है, प्रमत्त संयत सम्पदृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमि के गर्भज मनुष्य का आहारकशरीर नहीं होता । ભૂમમિના ગજ મનુષ્યના આહારકશરીર હાય છે. માહનીય આદિકમેમ્ના ઉદયથી સંજવલન કષાય. નિદ્રા આદિ કોઇપણ પ્રમાદના ચેગથી જે પ્રમાદને પ્રાપ્ત થાય, તે પ્રમત્ત કહેવાય છે. આ વ્યુત્પત્તિના અનુસાર પ્રાય: ગચ્છવાસી મુનિ પ્રમત્ત કહેવાય, કેમ કે તેમાં કયાંક કયાંક ઉપયેગ શૂન્યતાના સંભવ છે. જે પ્રમાદથી રહિત હૈાય તેએ અપ્રમત્ત કડવાય છે. તેએ પ્રાય: અદ્વૈત્કાલિક પરિહાર વિશુદ્ધિક યદાલ ઢકલ્પિક તથા પ્રતિમાધારી સમજવા જોઇએ, ડૅમ કે તેએ સદા ઉપયોગ યુક્ત રહે છે. શ્રીભગવાન ગૌતમ ! અપ્રમત્ત સયત સમ્યગ્દષ્ટિ પર્યાપ્ત સંખ્યાત વની આયુવાળા કર્મભૂમિના ગજ મનુષ્યના આહારકશરીર હાય છે, પ્રમત્ત સયત સમ્યગ્દષ્ટિ પર્યાપ્ત સંખ્યાત વર્ષની આયુવાળા ક્રમ ભૂમિના ગર્ભજ મનુષ્યના આહારકશરીર નથી હાતાં. श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४

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