Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रज्ञापनासूत्रे कस्य तीर्थकरनामगोत्राणि कर्माणि बद्धानि स्पृ टानि निधत्तानि (निहितानि) कृतानि प्रस्थापितानि निविष्टानि अभिनिविष्टानि अभिसमन्वागतानि उदीर्णानि नो उपशान्तानि भवन्ति स खलु रन्नप्रभापृथिवी नैरयिको रत्नप्रभापृथिवी नैरयिकेभ्योऽनन्तरमुवृत्त्य तीर्थकरत्वं लभेत,
पंचम तीर्थकर द्वार वक्तव्यता शब्दार्थ-(रयणप्पभा पुढयीनेरइए णं भंते! रयणप्पभापुढवीनेरइएहिंतो) हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी का नारक रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों से ( अणंतरं उज्वहिता) अनन्तर उदवर्तन करके (तित्थगरत्तं लभेज्जा ?) तीर्थकरत्व प्राप्त करते हैं १ (गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए, णो लभेज्जा) हे गौतम ! कोई-कोई प्राप्त करता है कोई-कोई प्राप्त नहीं करता (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ) हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि (अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा) कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं प्राप्त करता (गोयमा! जस्स णं रयणप्पभापुढवी नेरइयस्स) हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के जिस नारक के (त्थिगरनामगोयाई कम्माइं) तीर्थकर नामगोत्र कर्म (बद्धाई) बद्ध (पुट्ठाई) स्पृष्ट (निधत्ताई) निधत्त (कडाई) कृत (पट्टवियाई) प्रस्थापित (निविट्ठाई) निविष्ट (अभिनिविट्ठाई) अभिनिविष्ट (अभिसमन्नागयाइं) अभिसमन्वागत (उदिन्नाई) उदयागत (णो उवसंताई) उपशान्त नहीं (हवंति) होते हैं (से णं रयणप्पभापुढवी नेरइए) वह रत्नप्रभा पृथ्वी का नारक (रयणप्पभापुढवी नेरइएहिंतो) रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों से (अणंतरं उच्चहित्ता) अनन्तर उदवर्तन कर के (तित्थ.
પંચમ તીર્થકર દ્વારા વક્તવ્યતા शहा-(रयणप्पभापुढवीनेरइए भंते ! रयणप्पभापुढवीनेरइएहितो) हे समपन् ! २त्नप्रमा पृथ्वीना ना२४ २त्नमा पृथ्वीना नाथा (अणंतर उव्यट्टित्ता) अनन्त२ इयतन शन (तित्थगरत्तं लभेज्जा ?) तीथ ४२८५ प्रात ४२ छे ? (गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा) हे गौतम! -35 प्रात ४२ छ भने ४ । प्रत नथी ४२॥ (से केणटेणं भंते ! एवं उच्चइ) हे मापन् ! ४या हेतुथी सेभ पाय छ । (अथेत्गइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा) 5 प्रात ४२ छ, नयी प्रात ४२ता (गोयमा ! जस्सणं रयणप्पभापुढवी नेरइयस्स) हे गौतम ! २नमा पृथ्वीना रे ना२४न। ७१ (तित्थगरनामगोयाई कम्माई) (तीय ४२ नाम गोत्र ४म (बद्धाई) म (पुट्ठाई) स्पष्ट (निधत्ताई) नियत्त (कडाई) कृत (पदवियाई) प्रस्थापित (निविदाई) निविष्ट (अभिनिविट्टाई) मनिनिविष्ट (अभिसमन्नागयाइं) मजिसमन्यात (उदिन्नाई) यागत (णो उवसंपत्ताई) 64शतनही (हवति) होय छे (से णं रयणप्पभापुढवी नेरइए) ते २त्नप्रमा पृथ्वीनाना२४ (रयण पभापुढवी नेरइएहितो) २त्नाला पृथ्वीना नाथी (अणंतर उव्वट्टित्ता) मनन्त२ वतन प्रशन (तित्थगरत्तं लभेज्जा) तीथ ४२पने प्राप्ती से छ. (जस्स णं रयणप्पभापुढत्री नेरइयरस)
श्री. प्रापन। सूत्र:४