Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयबोधिनो टीका पद २० सू० ५ पृथ्वीकायाद्युबर्तननिरूपणम्
५२७ पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! पृथिवीकायिकेभ्योऽनन्तर मुढत्य पृथिवीकारिकेषु उपश्येत ? गौतम ! अस्त्येक उपपधेत, अस्त्येको नोपपोत, यः खलु भदन्त ! उपपद्येन स खलु केवलि प्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्राणतया ? गौतम ! नायमर्थः समर्षः, एवम् अकायिकादिषु निरन्तरं भणितव्यम् यावच्चतुरिन्द्रियेषु, पञ्चेन्द्रियनियंग्यौनिकमनुष्येषु यथा नैरयिकः, वानव्यन्तर ज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रतिषेधः, एवं यथा पृथिवीकायिको भणितस्तथैव कायिकोऽपि,
(पुढवीकाइए णं भंते ! पुढयीकाहएहितो अणंतरं अव्वहिता पुढवीकाइएसु उववज्जेज्जा !) हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों से अनन्तर उद्: वर्तन करके पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? (गोयमा ! अत्थेगइए उधव ज्जेज्जा अत्थेगहए जो उववज्जेजा?) हे गौतम! कोई-कोई उत्पन्न होता है, कोई-कोई नहीं उत्पन्न होता (जे णं भंते ! उबवज्जेज्जा) हे भगवन् ! जो उत्पन्न होता है (से णं केवलिपण्ण धम्मं लभेजा सवणयाए ?) वह क्या केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त करता है ? (गोवमा ! णो इणटे समझे) हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं (एवं आउक्काइयादिसु निरंतरं भाणियब्व) इसी प्रकार अप्कायिक आदि में निरन्तर कहना चाहिए (जाव चरिदिएप्सु) यावत् चतुरिन्द्रियों में (पंचिंदियतिरिक्ख जोणिय मणुस्लेसु) पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में (जहा नेरहए) जैसा नारक (वाणमंतर जोइसियरेमाणि एसु पडिसेहो) वानव्यन्तरों ज्योतिष्यों वैमानिकों में निषेध समझ लेना चाहिए । (एवं जहा पुढविकाइओ भणिओ) इस प्रकार जैसा पृथवीकायिक कहा (तहेव आउकाइओ वि) इसी प्रकार अप्कायिक भी (वणहप्तइ काइओ वि भाणिययो) वनस्पतिकायिक
(पुढवीकाइएणं भंते ! पुढवीकाइएहितो अणंतरं अट्टिता पुढवीका इएसु उववज्जेज्जा ?) હે ભગવન્ ! શું પૃથ્વીકાયિક, પૃથ્વીકાયિકોમાંથી અનન્તર ઉદ્વર્તન કરીને પૃથ્વીકાયિકમાં उत्पन्न थाय छ ? (गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा) गौतम !
5 4-1 थाय छे, -315 नयी ५-1 था (जेणे भंते ! उववज्जेज्जा) भगवन् ! २५-थाय छ (से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ?) ते ४ सि प्र३पित यमनु श्र] प्रात ४२ छ ? (गोयमा ! णो इणद्वे समडे) हे गौतम ! | અર્થ સમર્થ નથી.
__ (एवं आउकाइयादिसु निरंतर भाणियव्य) से प्रारे २५५४५४ माहिमा निरन्तर उ मे. (जाव चउरिदियसु) यावत् यतुवन्द्रियामा (पंबिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु) ५येन्द्रिय तिय यो मने मनुष्योमा (जहा नेरइए) २ ना२९ (वाणमंतर जोइसिय वेमाणिएसु पडिसेहो) पान०यन्त, यति, वैभानिमा निषेध ४९स छे.
(एवं जहा पुढविकाइ भणिओ) मे ४२ वा पृथ्वी।यि ४ा (तहेव आउकाइओ वि) स४ रे ॥५४॥५४ ५ ४: मन (वणस्सइकाइओ वि भाणियव्वो)
श्री. प्रशापनासूत्र:४