Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आलोचना करूँगा और विधिवत् प्रायश्चित्त लूंगा। वह स्थविरों की सेवा में पहुँचा। पर उसके पूर्व ही स्थविर रुग्ण हो गये तथा उनकी वाणी बन्द हो गई। वह श्रमण प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं कर सका तो वह आराधक है या विराधक?
भगवान् ने कहा—वह आराधक है, क्योंकि उसके मन में पाप की आलोचना करने की भावना थी ।यदि वह श्रमण स्वयं भी मूक हो जाता, पाप को प्रकट नहीं कर पाता तो भी वह आराधक था, क्योंकि उसके अन्तर्मानस में आलोचना कर पाप से मुक्त होने की भावना थी। पाप का सम्बन्ध भावना पर अधिक अवलम्बित है।
इस प्रकार भगवती में विविध प्रश्न पाप से निवृत्त होने के सम्बन्ध में पूछे गये। उन सभी प्रश्नों का सटीक समाधान भगवान् महावीर ने प्रदान किया है। पाप की उत्पत्ति मुख्य रूप से राग-द्वेष और मोह के कारण होती है। जितनी-जितनी उनकी प्रधानता होगी, उतना-उतना पाप का अनुबन्धन तीव्र और तीव्रतर होगा। जैनधर्म में पाप के प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान आदि अठारह प्रकार बताये हैं। ____बौद्धधर्म में कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर पाप या अकुशल कर्म के दस प्रकार प्रतिपादित
(१) कायिक पाप-१. प्राणातिपात (हिंसा), २. अदत्तादान (चोरी), ३. कामसुमिच्छाचार (कामभोग • सम्बन्धी दुराचार)।
___ (२) वाचिक पाप—१.मुसावाद (असत्य भाषण), ५. पिसुना वाचा (पिशुन वचन), ६. फरुसा वाचा (कठोर वचन),७. सम्फलाप (व्यर्थ आलाप)।
(३) मानसिक पाप—८. अभिज्जा (लोभ), ९. व्यापाद (मानसिक हिंसा या अहित चिन्तन), १०. मिच्छादिट्ठी (मिथ्यादृष्टि)।
अभिधम्मत्थसंगहो' नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी चौदह अकुशल चैतसिक पापों का निरूपण हुआ है। वे इस प्रकार हैं
१. मोहमूढ़ता, २. अहिरीक (निर्लज्जता), ३. अनोतप्पं—अभीरुता (पापकर्म में भय न मानना), ४. उद्धचं—उद्धतपन (चंचलता),५. लोभो (तृष्णा), ६.दिट्ठी-मिथ्यादृष्टि,७. मानो—अहंकार, ८. दोसोद्वेष, ९ इस्सा-ईर्ष्या, १०. मच्छरियं—मात्सर्य्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), ११. कुक्कुच्चकौकृत्य (कृत-अकृत के बारे में पश्चात्ताप), १२. थीनं, १३. मिद्धं, १४. विचिकिच्छा—विचिकित्सा (संशय)।
इसी प्रकार वैदिकपरम्परा के ग्रन्थ मनुस्मृति में भी पापाचरण के दस प्रकार प्रतिपादित हैं(क) कायिक—१. हिंसा, २. चोरी, ३. व्यभिचार, (ख) वाचिक–४. मिथ्या (असत्य), ५. ताना मारना, ६. कटुवचन, ७. असंगत वाणी,
१. बौद्धधर्मदर्शन, भाग १, पृष्ठ ४८०, ले. भरतसिंह उपाध्याय
अभिधम्मत्थसंगहो पृ. १९.२० मनुस्मृति १२/५-७
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