Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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श्रमण केवल वेशपरिवर्तन करने से ही नहीं होता। उसे जीवन में आगमोक्त सद्गुणों का प्राधान्य होना चाहिये। श्रमण के जीवन में जिन गुणों की अपेक्षा है उसकी चर्चा भगवतीसूत्र, शतक १, उद्देशक ९ में इस प्रकार की है— श्रमण को नम्र होना चाहिये। उसकी इच्छायें अल्प हों, पदार्थों के प्रति मूर्छा का अभाव हो, अनासक्त हो और अप्रतिबद्धविहारी हो। श्रमण को क्रोधादि कषायों से भी मुक्त रहना चाहिये। जो श्रमण राग-द्वेष से मुक्त होता है, वही श्रमण परिनिर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक १ में संवृत और असंवृत अनगार की चर्चा के प्रसंग में यह बताया है कि असंवृत अनगार जो राग-द्वेष से ग्रसित है, वह तीव्र कर्म का बन्धन करता है और संसार में परिभ्रमण करता है और संवृत अनगार जो राग-द्वेष से मुक्त है, वही सम्पूर्ण दुःखों का अन्त करता है। इससे स्पष्ट है कि श्रमणजीवन का लक्ष्य कषाय से मुक्त होना है। इस प्रकार विविध प्रसंग श्रमण-जीवन की महत्ता को उजागर करते हैं।
श्रमण अनगार होता है। वह अपना जीवन निर्दोष भिक्षा ग्रहण कर यापन करता है। उसकी भिक्षा एक विशुद्ध भिक्षा है। भगवतीसूत्र में भिक्षा के सम्बन्ध में यत्र-तत्र चर्चा है। उस युग में जनमानस में यह प्रश्न उबुद्ध हो रहा था कि श्रमणों या ब्राह्मणों को भिक्षा देने से पाप होता है या पुण्य होता है या निर्जरा होती है ? गणधर गौतम ने जनमानस में पनपती हुई यह शंका भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की कि उत्तम श्रमण या ब्राह्मण का निर्जीव और दोषरहित अन्न-पानी आदि के द्वारा एक श्रमणोपासक सत्कार करता है तो उसे क्या प्राप्त होता है ?
. भगवान् महावीर ने कहा श्रमणोपासक अन्न-पानी आदि से श्रमण और ब्राह्मण को समाधि उत्पन्न करता है, इसलिये वह समाधि प्राप्त करता है। वह जीवननिर्वाह योग्य वस्तु प्रदान कर.दुर्लभ सम्यक्त्वरत्न की विशुद्धि को प्राप्त करता है। वह निर्जरा करता है, पर पापकर्म नहीं करता।
श्रमण बहुत ही जागरूक होता है। भिक्षा ग्रहण करते समय और भिक्षा का उपयोग करते समय उसकी जागरूकता सतत बनी रहती है। आगम साहित्य में यत्र-तत्र भिक्षा सम्बन्धी दोष बताये गये हैं और आहार ग्रहण करने के दोष भी प्रतिपादित हैं। भगवतीसूत्र शतक ७ के प्रथम उद्देशक में प्रस्तुत प्रसंग इस प्रकार आया हैगणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष, संयोजनदोष प्रभृति से आहार किस प्रकार दूषित होता है ?
समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा—कोई श्रमण निर्ग्रन्थ निर्दोष, प्रासुक आहार को बहुत ही मूर्च्छित, लुब्ध और आसक्त बन के खाता है, वह अंगारदोष सहित आहार कहलाता है। आहार करते समय अन्तर्मानस में क्रोध की आग सुलग रही हो तो वह आहार धूमदोष सहित कहलाता है और स्वाद उत्पन्न करने के लिए एक दूसरे पदार्थ का संयोजन किया जाये, वह संयोजनादोष है। श्रमण क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त
और प्रमाणातिक्रान्त आहार आदि ग्रहण न करे पर नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करे। श्रमण का आहर समय साधना की अभिवृद्धि के लिए होता है। आहार के सम्बन्ध में भगवती में अनेक स्थलों पर चिन्तन प्रस्तुत किया है।' दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति प्रभृति आगम ग्रन्थों में भी भिक्षाचर्या पर विस्तार से विश्लेषण किया गया है।
१. भगवती. शतक ७, उद्देशक १ २. भगवती. शतक १, उद्देशक ९; शतक ५, उद्देशक ६ शतक ८, उद्देशक ६ ३. दशवैकालिक, अ. ३ अ.५
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