Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, भावनिर्जरा है। यही कर्मपरमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्यनिर्जरा है। भावनिर्जरा कारणरूप है और द्रव्यनिर्जरा कार्यरूप है । उत्तराध्ययन सूत्र में इसी तथ्य को रूपक की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया है—आत्मा सरोवर है, कर्म पानी है। कर्म का आश्रव पानी का आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को अवरुद्ध कर देना संवर है और पानी को उलीचना और सुखाना निर्जरा है।
प्रकारान्तर से निर्जरा के सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा, ये दो प्रकार हैं। जिसमें कर्म जितनी कालमर्यादा के साथ बंधा हुआ है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक यानी फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाता है, वह अकामनिर्जरा है । इस अकामनिर्जरा को यथाकाल निर्जरा, सविपाक निर्जरा और अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। विपाक-अवधि के आने पर कर्म अपना फल देकर स्वाभाविक रूप से पृथक् हो जाते हैं, इसमें कर्म को पृथक् करने के लिए प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। इस निर्जरा का महत्त्व साधना की दृष्टि से नहीं है। क्योंकि कर्मों का बन्ध और इस निर्जरा का क्रम प्रतिपल-प्रतिक्षण चलता रहता है। जब तक नूतन कर्मों का बन्धन अवरुद्ध नहीं होता तब तक सापेक्ष रूप से इस निर्जरा से लाभ नहीं होता। जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने ऋण को चुकाता तो रहता है पर नवीन ऋण भी ग्रहण करता रहता है तो वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं होता।अकामनिर्जरा अनादि काल से करने के बावजूद भी आत्मा मुक्त नहीं हो सका। भव-परम्परा को समाप्त करने के लिए सकामनिर्जरा की आवश्यकता है।
सकामनिर्जरा वह है, जिसमें तप आदि की साधना के द्वारा कर्मों की कालस्थिति परिपक्व होने के पहले ही प्रदेशोदय के द्वारा उन्हें भोगकर बलात् पृथक् कर दिया जाता है। इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता। केवल प्रदेशोदय ही होता है । विपाकोदय और प्रदेशोदय के अन्तर को समझाने के लिए डॉ. सागरमल जैन ने एक उदाहरण दिया है—"जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दु:खानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है, लेकिन विपाकोदय नहीं होता है। उसमें दु:खद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं, लेकिन दुःखद वेदना की अनुभूति नहीं है। इसी प्रकार प्रदेशोदय में कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है, किन्तु उसकी फलानुभूति नहीं होती। इसलिए वह निर्जरा अविपाक निर्जरा या सकाम निर्जरा कहलाती है। इस निर्जरा में कर्मपरमाणुओं को आत्मा से पृथक् करने के लिए संकल्प होता है। इसमें प्रयासपूर्वक कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आत्मा से पृथक् किया जाता है । इसिभासियं' ग्रन्थ में लिखा है कि संसारी आत्मा प्रतिपल-प्रतिक्षण अभिनव कर्मों का बन्ध और पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है। पर तप के द्वारा होने वाली निर्जरा का विशेष महत्त्व है।
भगवतीसूत्र (शतक १६, उद्देशक ४) में सकामनिर्जरा के महत्त्व का प्रतिपादन करने वाला एक सुन्दर प्रसंग है। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक नित्यभोजी श्रमण साधना के द्वारा जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने कर्म एक नैरयिक जीव सौ वर्ष में अपार वेदना सहन कर नष्ट कर सकता है ?
समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा—नहीं। .
पुनः गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक उपवास करने वाला श्रमण जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने १. डॉ. सागरमल जैन; जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १, पृष्ठ ३९६ २. इसिभासियं ९/१०
[३५]