Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888
अपरिण्णायकम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेइ, अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ।
कठिन शब्दार्थ - अपरिण्णायकम्मे - अपरिज्ञातकर्मा - क्रियाओं के स्वरूप से अपरिचित, सहेइ - साथ जाता है, अणेगरूवाओ - अनेक प्रकार की, जोणीओ - योनियों का, संधेइसन्धान करता है - प्राप्त करता है, विरूवरूवे - विविध प्रकार के; फासे - स्पर्शों का, . पडिसंवेदेइ - संवेदन-अनुभव करता है।
भावार्थ - जो पुरुष अपरिज्ञातकर्मा (क्रियाओं के सम्यक् स्वरूप को नहीं जानता और उनका त्याग नहीं करता) है वह इन दिशाओं और अनुदिशाओं में परिभ्रमण करता है और सभी दिशा-विदिशाओं में कर्मों के साथ जाता है। अनेक प्रकार की योनियों को प्राप्त करता है और वहां विविध प्रकार के स्पर्शों अर्थात् सुख दुःख के आघातों का अनुभव करता है।
विवेचन - जो पुरुष कर्म एवं क्रिया के स्वरूप से अनभिज्ञ है वह स्वकृत कर्म के अनुसार दिशाओं और विदिशाओं में परिभ्रमण करता है क्योंकि कर्मों के रहस्य को नहीं जान पाने के कारण वह उनके नाश के लिए प्रयत्न नहीं करता है और एक गति से दूसरी गति में या एक योनि से दूसरी योनि में भटकता रहता है। इस भवभ्रमण से छुटकारा पाने के लिये कर्म एवं क्रिया के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना तथा उसके अनुरूप आचरण करना आवश्यक है इसीलिये आगमों में सम्यग् ज्ञान सहित सम्यक् क्रिया का आदेश दिया गया है। .
'अणेगलवाओ जोणीओ' पाठ में प्रयुक्त जोणीओ पद योनि का बोधक है। टीकाकार ने योनि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है -
'यौति मिश्री भवत्यौदारिकादि शरीर वर्गणा पुद्गलैरसुमान् यासु ता योनयः प्राणिनामुत्पत्ति स्थानानि'
अर्थात् - यह जीव औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर वर्गणा के पुद्गलों को लेकर जिससे मिश्रित होता है, संबंध करता है उस स्थान को योनि कहते हैं। दूसरे शब्दों में योनि उत्पत्ति स्थान का नाम है। प्रज्ञापना सूत्र के नौवें योनिपद में विविध प्रकार की योनियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ देख लेना चाहिये।
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