Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम अध्ययन - प्रथम उद्देशक - क्रिया-बोध GORRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE - इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में 'मैं कौन था' का समाधान 'मैं आत्मा हूँ' से किया गया है। अहिंसा का आधार आत्मा है। आत्म-बोध हो जाने पर ही अहिंसा की साधना हो सकती है इसलिये आगे के सूत्रों में हिंसा-अहिंसा का विवेचन किया गया है -
क्रिया-बोध
अकरिस्सं चऽहं कारवेसुं चऽहं करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि, एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति।
कठिन शब्दार्थ - अकरिस्सं - किया, अहं - मैंने, कारवेसुं - करवाया, करओ - करते हुए को, समणुण्णे - अनुमोदन-समर्थन, सव्वावंति - सम्पूर्ण, लोगंसि - लोक में,
एयावंति -- इतनी ही, कम्मसमारंभा - कर्म समारम्भ-क्रियाएं, परिजाणियव्वा - जानने • योग्य, भवंति - होती हैं।
भावार्थ - मैंने किया, मैंने करवाया और करने वाले का मैं अनुमोदन करूंगा। . सम्पूर्ण लोक में इतनी ही कर्म समारम्भ-क्रियाएं जानने योग्य होती हैं।
विवेचन - कर्म बन्धन से आबद्ध आत्मा ही संसार में परिभ्रमण करती है और कर्म का कारण क्रिया है अतः सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में क्रिया का वर्णन किया है।
क्रिया - करने, कराने और अनुमोदन करने की अपेक्षा तीन प्रकार की है। संसारी प्राणी तीनों कालों में क्रियाशील रहता है अतः भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल की अपेक्षा प्रत्येक काल के तीन भेद होने से क्रिया के नौ भेद हो जाते हैं और मन, वचन, काया की अपेक्षा से क्रिया के ६४३-२७. भेद हो जाते हैं।
ये २७ क्रियाएं ही समस्त लोक में होती है। ये क्रियाएं ही कर्मबंधन के लिए कारणभूत हैं। अतः विवेकी पुरुषों को इन २७ क्रियाओं का स्वरूप जान कर इनका त्याग कर देना चाहिये।
इन क्रियाओं से निवृत्त होकर ही साधक कर्म बंधन एवं संसार परिभ्रमण के दुःखों से छुटकारा पा सकता है। जो इन क्रियाओं का त्याग नहीं करता है उसे किस फल की प्राप्ति होती है इसका वर्णन सूत्रकार इस प्रकार करते हैं -
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