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धारण करने वाली है जिस के माध्यम से ही स्वरूप-बोध, स्वरूप-परिचय एवं स्वरूप-दर्शन संभव होता है।
इस चेतना को सावधान एवं प्रबुद्ध बनाने वाली होती है वीतराग देवों की वाणी, रागद्वेष के कुप्रभाव से मुक्त सर्वप्राणी हितकारिणी उपदेश-धारा । साधक इसी वीतराग वाणी को जब परिपूर्ण सत्य के रूप में स्वीकृत करता हुआ अपनी साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता जाता है, तब उसके सामने उस वाणी का मक्खन रूप सार समीक्षण ध्यान अतीव प्रभावोत्पादक बन जाता है। साधक तब समीक्षण ध्यान के सविशेष प्रयोगों द्वारा अपने अनंत सुख स्वरूप चेतना बोध के प्रति अधिक सक्रिय हो जाता है। समीक्षण ध्यान के प्रभाव स्वरूप जो दिव्य आत्म-जागृति उसको प्राप्त होती है, वह उसके लिये स्वयं को धन्य मानने लग जाता है। उसका वह आत्म-बोध वर्तमान में तो श्रद्धा रूप ही रहता है किन्तु वही श्रद्धा प्रगाढ़ रूप धारण करके सम्यक् बनती हुई सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् आचरण को साधक के जीवन में जागृत एवं कार्यरत बनाती है। श्रद्धा से उसका आत्मविश्वास बलिष्ठ बन जाता है और मन में यह धारणा निश्चित हो जाती है कि वह अब अपनी विकृत वृत्तियों को समाप्त करके ही विराम लेगा। वह यह भी निश्चय करेगा कि तब भविष्य में ये विकृत वृत्तियाँ पुनः मेरे भीतर में कोई स्थान न पा सके। इस प्रकार स्वभाव और विभाव के संघर्ष में शुद्ध आत्म शक्ति की विजय होगी तथा आत्म शक्ति का केन्द्र अधिक तेजस्वी बनेगा।
किन्तु यह उपलब्धि तभी प्राप्त हो सकेगी जब इस आत्मा की चहुंमुखी सावधानी बनी रहेगी। साधक को यह अभ्यास बना लेना चाहिये कि वह एक पल के लिए भी असावधान न रहे। सावधानी उसका सहज गुण बन जाना चाहिये।
अहंभाव का विसर्जन पूर्ण सावधानी के साथ जब साधना के क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है, तभी साधना के महत्त्व को महसूस करने का अवसर उपस्थित होता है। यों साधनाएँ कई प्रकार की होती हैं तथा उसके आयाम भी कई प्रकार के होते हैं। यह साधक की परीक्षा बुद्धि का परिणाम होता है कि वह सम्यक् साधना के माध्यम से कभी मन्द अथवा कभी तीव्र गति से अपने गंतव्य तक पहुँचता है। सभी प्रकार की साधनाओं में आत्मिक साधना का सर्वाधिक महत्त्व माना गया है। इससे बढ़कर अन्य कोई साधना इस विश्व में नहीं है। सच पूछे तो इससे बढ़कर अन्य कोई साधना कभी विश्व में थी नहीं और आगे भी कभी होगी नहीं। इस अद्वितीय साधना को अपनाकर जब साधक गतिशील होता है तो वह सम्पूर्ण परिधियों को पार करके उच्चतम स्वरूप का वरण करता है। यह उच्चतम स्वरूप ही भव्य आत्माओं के लिए अपना चरम और अन्तिम गंतव्य स्थान है।
इस उच्चतम स्वरूप को प्राप्त करने की दृष्टि से समीक्षण ध्यान के तीन आयाम ऊपर बताये गये हैं। इन्हीं आयामों में जिस साधक की गतिशीलता जितनी तीव्र बनती है, उतनी ही गूढ़ता से वह अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करके अपनी वृत्तियों को सुव्यवस्थित बना लेता है। आत्म समीक्षण की इन बहुआयामी प्रवृत्तियों में कई विश्रामस्थल भी आते हैं। स्थूल परिधि के अन्दर प्रवेश करने में भी चित्तवृत्तियों के समक्ष ऐसे विश्राम के क्षण आते हैं जब साधक अपनी पिछली प्रगति का लेखाजोखा ले सकता है और अपने भविष्य के कार्यक्रम का सुविचारित निर्धारण कर सकता है। इस स्थूल परिधि के अन्तर्गत विचरण करने वाली चित्तवृत्तियाँ सामयिक स्वरूप को धारण करके मानस तंत्र को
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